उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर यहाँ से उत्तर तरफ़ के द्वार में घुसा, तो यहाँ बाज़ार सा लगा देखा। एक लम्बी क़तार दरज़ियों की थी, जो ठाकुरजी के वस्त्र सी रहे थे। कहीं जरी के काम हो रहे थे, कहीं कारचोबी की मसनदें और गावतकिये बनाये जा रहे थे। एक क़तार सोनारों की थी, जो ठाकुरजी के आभूषण बना रहे थे। कहीं जड़ाई का काम हो रहा था, कहीं पालिश किया जाता था, कहीं पटवे गहने गूँथ रहे थे। एक कमरे में दस-बारह मुस्टण्डे जवान बैठे चन्दन रगड़ रहे थे। सबों के मुँह पर ढाटे बँधे हुए थे। एक पूरा कमरा इत्र और तेल और अगर की बत्तियों से भरा हुआ था। ठाकुरजी के नाम पर कितना अपव्यय हो रहा है, यही सोचता हुआ अमर यहाँ से फिर बीच वाले प्रांगण में आया और सदर द्वार से बाहर निकला।
गूदड़ ने पूछा–‘बड़ी देर लगाई। कुछ बातचीत हुई?’
अमर ने हँसकर कहा–‘अभी तो केवल दर्शन हुए हैं, आरती के बाद भेंट होगी।’ यह कहकर उसने जो कुछ देखा था, वह विस्तारपूर्वक बयान किया।
गूदड़ ने गर्दन हिलाते हुए कहा–‘भगवान् का दरबार है। जो संसार को पालता है, उसे किस बात की कमी। सुना तो हमने भी है; लेकिन कभी भीतर नहीं गये कि कोई पूछने-पाछने लगे, तो निकाले जायें। हाँ, घुड़साल और गऊशाला देखी है। मन चाहे तुम भी देख लो।’
अभी समय बहुत बाक़ी था। अमर गऊशाला देखने चला। मन्दिर के दक्खिन पशुशालाएँ थीं। सबसे पहले फीलखाने में घुसे। कोई पच्चीस-तीस हाथी आँगन में जंजीरों में बँधे खड़े थे। कोई इतना बड़ा कि पूरा पहाड़ कोई इतना मोटा, जैसे भैंस। कोई झूम रहा था, कोई सूँड घुमा रहा था, कोई बरगद के डाल-पात चबा रहा था। उनके हौदे, झूले, अम्बारियाँ, गहने सब अलग एक गोदाम में रखे हुए थे। हरेक हाथी का अपना नाम, अपना सेवक, अपना मकान अलग था। किसी को मन भर रातिब मिलता था, किसी को चार पसेरी। ठाकुरजी की सवारी में जो हाथी था, वही सबसे बड़ा था। भगत लोग उसकी पूजा करने आते थे। इस वक़्त भी मालाओं का ढेर उसके सिर पर पड़ा हुआ था। बहुत से फूल उसके पैरों के नीचे थे।
यहाँ से घुड़साल में पहुँचे। घोड़ों की क़तारें बँधी हुई थीं, मानो सवारों की फ़ौज का पड़ाव हो। पाँच सौ घोड़ों से कम न थे, हरेक जाति के, हरेक देश के। कोई सवारी का, कोई शिकार का, कोई बग्धी का, कोई पोलो का। हरेक घोड़े पर दो-दो आदमी नौकर थे। महन्तजी को घुड़दौड़ का बड़ा शौक था। इनमें कई घोड़े घुड़दौड़ के थे। उन्हें रोज़ बादाम और मलाई दी जाती थी।
गऊशाले में भी चार-पाँच सौ गायें-भैंसे थीं! बड़े-बड़े मटके ताज़े दूध से भरे रखे थे। ठाकुरजी आरती के पहले स्नान करेंगे। पाँच-पाँच मन दूध उनके स्नान को तीन बार रोज चाहिए, भण्डार के लिए अलग।
अभी यह लोग इधर-उधर घूम ही रहे थे कि आरती शुरू हो गयी। चारों तरफ़ से लोग आरती करने को दौड़ पड़े।
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