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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


गूदड़ ने कहा–‘तुमसे कोई पूछता–कौन भाई हो, तो क्या बताते?’

अमर ने मुस्कराकर कहा–वैश्य बताता।’

‘तुम्हारी तो चल जाती; क्योकि यहाँ तुम्हें लोग कम जानते हैं, मुझे तो लोग रोज़ ही हाथ में चरसें बेचते देखते हैं, पहचान लें, तो जीता न छोड़ें। अब देखो भगवान् की आरती हो रही है और हम भीतर नहीं जा सकते। यहाँ के पण्डे-पुजारियों के चरित्र सुनो, तो दाँतों उँगली दबा लो; पर वे यहाँ के मालिक हैं, और हम भीतर कदम नहीं रख सकते। तुम चाहे जाकर आरती ले लो। तुम सूरत से भी तो ब्राह्मण जँचते हो। मेरी तो सूरत ही चमार-चमार पुकार रही है!’

अमर की इच्छा तो हुई कि अन्दर जाकर तमाशा देखे, पर गूदड़ को छोड़कर जा न सका। कोई आध घण्टे में आरती समाप्त हुई और उपासक लौटकर अपने-अपने घर गये,

तो अमर महन्तजी से मिलने चला। मालूम हुआ, कोई रानी साहब दर्शन कर रही हैं। वहीं आँगन में टहलता रहा।

आध घण्टे के बाद उसने फिर साधु द्वारपाल से कहा, तो पता चला, इस वक़्त नहीं दर्शन हो सकते। प्रातःकाल आओ।

अमर को क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक़्त महन्तजी को फटकारें, पर ज़ब्त करना पड़ा। अपना-सा मुँह लेकर बाहर चला आया।

गूदड़ ने यह समाचार सुनकर कहा–‘इस दरबार में भला हमारी कौन सुनेगा?’

‘महन्तजी के दर्शन तुमने कभी किये हैं?’

‘मैंने! भला मैं कैसे करता? मैं कभी नहीं आया।’

नौ बज रहे थे, इस वक़्त घर लौटना मुश्किल था। पहाड़ी रास्ते, जंगली जानवरों का खटका, नदी-नालों का उतार। वहीं रात काटने की सलाह हुई। दोनों एक धर्मशाला में पहुँचे और कुछ खा-पीकर वहीं पड़े रहने का विचार किया। इतने में दो साधु भगवान् का ब्यालू बेचते हुए नज़र आये। धर्मशाला के सभी यात्री लेने दौड़े। अमर ने भी चार आने की एक पत्तल ली। पूरियाँ, हलवे, तरह-तरह की भाजियाँ, अचार-चटनी, मुरब्बे, मलाई, दही। इतना सामान था कि अच्छे दो खाने वाले तृप्त हो जाते। यहाँ चूल्हा बहुत कम घरों में जलता था। लोग यही पत्तल ले लिया करते थे। दोनों ने खूब पेटभर खाया और पानी पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे कि एक साधु दूध बेचने आया– ‘शयन का दूध ले लो। अमर की इच्छा तो न थी; पर कुतूहल से उसने दो आने का दूध लिया। पूरा एक सेर था, गाढ़ा मलाईदार उसमें से केसर और कस्तूरी की सुगन्ध उड़ रही थी। ऐसा दूध उसने अपने जीवन में कभी न पिया था।’

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