उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
बेचारे बिस्तर तो लाये न थे, आधी-आधी धोतियाँ बिछाकर लेटे।
अमर ने विस्मय से कहा–‘इस ख़र्च का कुछ ठिकाना है!’
गूदड़ भक्ति-भाव से बोला–‘भगवान देते हैं और क्या! उन्हीं की महिमा है। हज़ार-दो-हज़ार यात्री नित्य आते हैं। एक-एक सेठिया दस-दस,बीच-बीस हज़ार की थैली चढ़ाता है। इतना खरचा करने पर भी करोड़ों रुपयें बैंक में जमा हैं।’
‘देखें कल क्या बातें होती हैं?’
‘मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि कल भी दर्शन न होंगे।’
दोनों आदमियों ने कुछ रात रहे ही उठकर स्नान किया और दिन निकलने के पहले ड्योढी पर जा पहुँचे। मालूम हुआ, महन्तजी पूजा पर हैं।
एक घण्टा बाद फिर गये, तो सूचना मिली, महन्तजी कलेऊ पर हैं।
जब वह तीसरी बार नौ बजे गया, तो मालूम हुआ, महन्तजी घोड़ों का मुआइना कर रहे हैं। अमर ने झुँझलाकर द्वारपाल से कहा–‘तो आख़िर हमें कब दर्शन होंगे?’
द्वारपाल ने पूछा–‘तुम कौन हो?’
‘मैं उनके इलाके का असामी हूँ। उनके इलाक़े के विषय में कुछ कहने आया हूँ।’
‘तो कारकुन के पास जाओ। इलाक़े का काम वही देखते हैं।’
अमर पूछता हुआ कारकुन के दफ्तर में जा पहुँचा, तो बीसों मुनीम लम्बी-लम्बीं बही खोले लिख रहे थे। कारकुन महोदय मसनद लगाये हुक्का पी रहे थे।
अमर ने सलाम किया।
कारकुन साहब ने दाढ़ी पर हाथ फेरकर पूछा–‘अर्जी कहाँ है?’
अमर ने बगलें झाँककर कहा–‘अर्जी तो मैं नहीं लाया।’
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