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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘तो फिर यहाँ क्या करने आये?’

‘मैं तो श्रीमान महन्तजी से कुछ अर्ज करने आया था।’

‘अर्जी लिखाकर लाओ।’

‘मैं तो महन्तजी से मिलना चाहता हूँ।’

‘नज़राना लाये हो?’

‘मैं ग़रीब आदमी हूँ, नज़राना कहाँ से लाऊँ?’

‘इसीलिए कहता हूँ, अर्जी लिखकर लाओ। उस पर विचार होगा। जो कुछ हुक्म होगा, वह सुना दिया जायेगा।’

‘तो कब हुक्म सुनाया जायेगा?’

‘जब महन्तजी की इच्छा हो।’

‘महन्तजी को कितना नज़राना चाहिए?’

‘जैसी श्रद्धा हो। कम-से-कम एक अशर्फ़ी।’

‘कोई तारीख बता दीजिए, तो मैं हुक्म सुनने आऊँ। यहाँ रोज कौन दौड़ेगा?’

‘तुम दौड़ोगे, और कौन दौड़ेगा? तारीख नहीं बतायी जा सकती।’

अमर ने बस्ती में जाकर विस्तार के साथ अर्ज़ी लिखी और उसे कारकुन की सेवा में पेश कर दिया। फिर दोनों घर चले गये।

इनके आने की ख़बर पाते ही गाँव के सैकड़ों आदमी जमा हो गये। अमर बड़े संकट में पड़ा। अगर उनसे सारा वृत्तान्त कहता हूँ, तो लोग उसी को उल्लू बनाएँगे। इसलिए बात बनानी पड़ी–‘अर्ज़ी पेश कर आया हूँ उस पर विचार हो रहा है।’

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