उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘तो क्या आप चाहते हैं, सरकार अपनी वज़ा छोड़ दे। यह दफ़्तरी हुकूमत है जनाब। वहाँ सभी काम ज़ाब्ते के साथ होते हैं। आप हमें गालियाँ दें, हम आपका कुछ नहीं कर सकते। पुलिस में रिपोर्ट होगी, पुलिस आपका चालान करेगी। होगा वही, जो मैं चाहूँगा, मगर जाब्ते के साथ। ख़ैर यह तो मज़ाक था। आपके दोस्त मि. सलीम बहुत जल्द उस इलाक़े की तहक़ीक़ात करेंगे, मगर देखिए। झूठी शहादतें न पेश कीजिएगा कि यहाँ से निकाले जायँ। मि. सलीम आपकी बड़ी तारीफ़ करते हैं, मगर भाई, मैं तुम लोगों से डरता हूँ। ख़ासकर तुम्हारे उस स्वामी से। बड़ा ही मुफ़सिद आदमी है। उसे फँसा क्यों नहीं देते? मैंने सुना है, वह तुम्हें बदनाम करता फिरता है।’
इतना बड़ा अफ़सर अमर से इतनी बेतक़ल्लुफ़ी से बातें कर रहा था, फिर उसे क्यों न नशा हो जाता? सचमुच आत्मानन्द आग लगा रहा है। अगर वह गिरफ़्तार हो जाय, तो इलाक़े में शान्ति हो जाय। स्वामी साहसी है, यथार्थ वक्ता है, देश का सच्चा सेवक है, लेकिन इस वक़्त उसका गिरफ़्तार हो जाना ही अच्छा।
उसने कुछ इस भाव से जवाब दिया कि उसके मनोभाव प्रकट न हों; पर स्वामी पर वार चल जाय– ‘मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं है, उन्हें अख्तियार है, मुझे जितना चाहें बदनाम करें।’
ग़ज़नवी ने सलीम से कहा–‘तुम नोट कर लो मि. सलीम। कल इस हलक़े के थानेदार को लिख दो, इस स्वामी की ख़बर ले। बस, अब सरकारी काम ख़त्म। मैंने सुना है मि. अमर, कि आप औरतों को वश में करने का कोई मन्त्र जानते हैं।’
अमर ने सलीम की गरदन पकड़कर कहा–‘तुमने मुझे बदनाम किया होगा।’
सलीम बोला–‘तुम्हें तुम्हारी हरक़तें बदनाम कर रही हैं, मैं क्यों करने लगा?’
ग़ज़नवी ने बाँकेपन के साथ कहा–’तुम्हारी बीबी ग़जब की दिलेर औरत हैं, भई! आजकल म्युनिसिपैलटी से उनकी ज़ोर–आजमाई है और मुझे य़कीन है, बोर्ड को झुकाना पड़ेगा। अगर भई, मेरी बीबी ऐसी होती, तो मैं फ़कीर हो जाता। वल्लाह!’
अमर ने हँसकर कहा–‘क्यों, आपको तो और ख़ुश होना चाहिए था।’
ग़ज़नवी–‘जी हाँ! वह तो जनाब का दिल ही जानता होगा।’
सलीम–‘उन्हीं के ख़ौफ से तो यह भागे हुए हैं।’
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