उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलोनी ने कहा–‘जब मोटे स्वामी मानें।’
गूदड़ ने चौधरीपन की ली–‘मानेंगे कैसे नहीं, उनको मानना पड़ेगा।’
एक काले युवक ने जो स्वामीजी के उग्र भक्तों में था, लज्जित होकर कहा–‘भैया, जिस लगन से तुम काम करते हो, कोई क्या करेगा?’
दूसरे दिन उसी कड़ाई से प्यादों ने डाँट-फटकार की; लेकिन तीसरे दिन से वह कुछ नर्म हो गये। सारे इलाके में ख़बर फैल गयी कि महन्तजी ने आधी छूट के लिए सरकार को लिखा है। स्वामीजी जिस गाँव में जाते थे, वहाँ लोग उन पर आवाज़ें कसते। स्वामी अपनी रट अब भी लगाये जाते थे यह सब धोखा है, कुछ होना–हवाना नहीं है, उन्हें अपनी बात की आ पड़ी थी–असामियों की उन्हें उतनी फ़िक्र न थी, जितनी अपने पक्ष की। अगर आधी छूट का हुक्म आ जाता, तो शायद वह यहाँ से भाग जाते। इस वक़्त तो वह इस वादे को धोखा साबित करने की चेष्टा करते थे, और यद्यपि जनता उनके हाथ में न थी, पर कुछ-न-कुछ आदमी उनकी बातें सुन ही लेते थे। हाँ, इस कान सुनकर उस कान उड़ा देते।
दिन गुज़रने लगे, मगर कोई हुक्म नहीं आया। फिर लोगों में सन्देह पैदा होने लगा। जब दो सप्ताह निकल गये तो अमर सदर गया और वहाँ सलीम के साथ हाकिम जिला मि. ग़ज़नवी से मिला। मि. ग़ज़नवी लम्बे, दुबले, गौरे शौकीन आदमी थे। उनकी नाक इतनी लम्बी और चिबुक इतना गोल था कि हास्य-मूर्ति से लगते थे। और थे भी बड़े विनोदी। काम उतना ही करते थे, जितना जरूरी होता था और जिसके न करने से जवाब तलब हो सकता था; लेकिन दिल के साफ़ उदार, परोपकारी आदमी थे। जब अमर ने गाँवों की हालत उनसे बयान की, तो हँसकर बोले–‘आपके महन्तजी ने फ़रमाया है, सरकार जितनी मालगुज़ारी छोड़ दे, मैं उतनी ही लगान छोड़ दूँगा। हैं मुन्सिफ़ मिज़ाज़।’
अमर ने शंका की–‘तो इसमें बेइन्साफ़ी क्या है?’
‘बेइन्साफी यही है कि उनके करोड़ों रुपए बैंक में जमा हैं, सरकार पर अरबों क़र्ज़ है।’
‘तो आपने उनकी तजवीज़ पर कोई हुक्म दिया?’
‘इतनी जल्द! भला छः महीने तो गुज़रने दीजिए। अभी हम काश्तकारों की हालत की जाँच करेंगे, उसकी रिपोर्ट भेजी जायेगी, फिर रिपोर्ट पर गौर किया जायेगा, तब कहीं कोई हुक्म निकलेगा।’
‘तब तक तो असामियों के वारे-न्यारे हो जायेंगे। अजब नहीं कि फ़साद शुरू हो जाये।’
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