उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
महन्तजी ने आँखों पर ऐनक लगा ली और दूसरी अर्जियाँ देखने लगे, तो अमरकान्त भी उठ खड़ा हुआ। चलते-चलते उसने पूछा–‘अगर श्रीमान, कारिदों को हुक्म दे दें कि इस वक़्त असामियों को दिक़ न करें, तो बड़ी दया हो। किसी के पास कुछ नहीं हैं, पर मार-गाली के भय से बेचारे घर की चीजें बेच-बेचकर लगान चुकाते हैं। कितने ही तो इलाका छोड़-छोड़ भागे जा रहे हैं।’
महन्तजी की मुद्रा कठोर हो गयी–‘ ऐसा नहीं होने पायेगा। मैंने कारिदों को कड़ी ताकीद कर दी है कि किसी असामी पर सख़्ती न की जाय। मैं उन सबों से जवाब-तलब करूँगा। मैं असामियों का सताया जाना बिलकुल पसन्द नहीं करता।’
अमर ने झुककर महन्तजी को दण्डवत् किया और वहाँ से बाहर निकला, तो उसकी बाछें खिल जाती थीं। वह जल्द-से-जल्द इलाक़े में पहुँचकर यह ख़बर सुना देना चाहता था। ऐसा तेज़ जा रहा था, मानो दौड़ रहा है बीच-बीच में दौड़ भी लगा लेता था, पर सचेत होकर रुक जाता था, लू तो न थी, पर धूप बड़ी तेज थी, देह फुँकी जाती थी, फिर भी वह भागा चला जाता था। अब वह स्वामी आत्मानन्द से पूछेगा, कहिए अब तो आपको विश्वास आया न कि संसार में सभी स्वार्थी नहीं? कुछ धर्मात्मा भी हैं, जो दूसरों का दुःख-दर्द समझते हैं। अब उनके साथ के बेफ़िक्रों की ख़बर भी लेगा। अगर उसके पर होते तो उड़ जाता।
संध्या समय वह गाँव में पहुँचा, तो कितने ही उत्सुक, किन्तु अविश्वास से भरे नेत्रों ने उसका स्वागत किया।
काशी बोला–‘आज तो बड़े प्रसन्न हो भैया, पाला मार आए क्या?’
अमर ने खाट पर बैठते हुए अकड़कर कहा– ‘जो दिल के काम करेगा, वह पाला मारेगा ही।’
बहुत से लोग पूछने लगे–‘भैया, क्या हुकुम हुआ?’
अमर ने डॉक्टर की तरह मरीजों को तसल्ली दी– ‘महन्तजी को तुम लोग व्यर्थ बदनाम कर रहे थे। ऐसी सज्जनता से मिले कि क्या कहूँ। कहा–हमें तो कुछ मालूम ही नहीं, पहले ही क्यों न सूचना दी, नहीं हमने वसूली बन्द कर दी होती। अब उन्होंने सरकार को लिखा है। यहाँ कारिदों को भी वसूली की मनाही हो जायेगी।’
काशी ने खिसियाकर कहा–‘देखो, कुछ हो जाये तो जाने।’
अमर ने गर्व से कहा–‘अगर धैर्य से काम लोगे, तो सब कुछ हो जायेगा। हुल्लड़ मचाओगे, तो कुछ न होगा, उल्टे और डण्डे पड़ेंगे।’
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