उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलीम ने सिर हिलाया–‘उन्हें फ़ुरसत कहाँ? मैंने बुलाया था, नहीं आये।’
ग़ज़नवी मुस्कराये–‘तुमने निज के तौर पर बुलाया होगा। किसी इंस्टीट्यूशन की तरफ़ से बुलाओ और कुछ चन्दा करा देने का वादा कर लो। फिर देखो चारों हाथ-पाँव से दौड़े आते हैं या नहीं। इन क़ौमी ख़ादिमों की जान चन्दा है, ईमान चन्दा है और शायद खुदा भी चन्दा है। जिसे देखो, चन्दे की हाय-हाय। मैंने कई बार इन ख़ादिमों को चरका दिया, उस वक़्त इन खादिमों की सूरतें देखने ही से ताल्लुक रखती हैं। गालियाँ देते है, पैंतरे बदलते हैं, ज़बान से तोप के गोले छोड़ते हैं, और आप उनके बौखलपन का मज़ा उठा रहे हैं। मैंने तो एक बार एक लीडर साहब को पागलखाने में बन्द कर दिया था। कहते हैं अपने को क़ौम का ख़ादिम और लीडर समझते हैं।’
सबेरे मि. ग़ज़नवी ने अमर को अपने मोटर पर गाँव पहुँचा दिया। अमर के गर्व और आनन्द का वारापार न था। अफसरों की सोहबत ने कुछ अफ़सरी की शान पैदा कर दी थी। हाकिम परगना तुम्हारी हालत जाँच करने आ रहे हैं। ख़बरदार, कोई उनके सामने झूठा बयान न दे। जो कुछ वह पूछे, उसका ठीक-ठाक जवाब दो। न अपनी दशा को छिपाओ, न बढ़ाकर बताओ। तहक़ीक़ात सच्ची होनी चाहिए। मि. सलीम बड़े नेक और ग़रीब-दोस्त आदमी हैं। तहक़ीक़ात में देर ज़रूर लगेगी, लेकिन राज्य-व्यवस्था में देर लगती ही है। इतना बड़ा इलाक़ा है, महीनों घूमने में लग जायेंगे। तब तक तुम लोग खरीफ़ का काम शुरू कर दो, रुपये में आठ आने छूट का मैं जिम्मा लेता हूँ। सब्र का फल मीठा होता है, इतना समझ लो।
स्वामी आत्मानन्द को भी अब विश्वास आ गया। उन्होंने देखा, अमर अकेला ही सारा यश लिए जाता है और मेरे पल्ले अपयश के सिवा और कुछ नहीं पड़ता। तो उन्होंने पहलू बदला। एक जलसे में दोनों एक ही मंच से बोले। स्वामीजी झुके, अमर ने कुछ हाथ बढ़ाया। फिर दोनों में सहयोग हो गया।
इधर असाढ़ की वर्षा शुरू हुई, उधर सलीम तहक़ीक़ात करने आ पहुँचा। दो-चार गाँवों में असामियों के बयान लिखे भी; लेकिन एक ही सप्ताह में ऊब गया। पहाड़ी डाक-बँगले में भूत की तरह अकेले पड़े रहना उसके लिए कठिन तपस्या थी। एक दिन बीमारी का बहाना करके भाग खड़ा हुआ, और एक महीने तक टालमटोल करता रहा। आख़िर जब ऊपर से डाँट पड़ी और ग़ज़नवी ने सख्त ताकीद की, तो फिर चला। उस वक़्त सावन की झड़ी लग गयी थी, नदी-नाले भर गये थे और कुछ ठण्डक आ गयी थी। पहाड़ियों पर हरियाली छा गयी थी, मोर बोलने लगे थे। इस प्राकृतिक शोभा ने देहातों को चमका दिया था।
कई दिन के बाद आज बादल खुले थे। महन्तजी ने सरकारी फैसले के आने तक रुपये में चार आने की छूट की घोषणा कर दी थी और क़ारिन्दे ब़काया वसूल करने की फिर चेष्टा करने लगे थे। दो-चार असामियों के साथ उन्होंने सख़्ती भी की थी। इस नयी समस्या पर विचार करने के लिए आज गंगा-तट पर एक विराट सभा हो रही थी। भोला चौधरी सभापति बनाये गये और स्वामी आत्मानन्द का भाषण हो रहा था–‘सज्जनों, तुम लोगों में ऐसे बहुत कम हैं, जिन्होंने आधा लगान न दे दिया हो। अभी तक तो आधे की चिन्ता थी। अब केवल आधे-के-आधे की चिन्ता है। तुम लोग ख़ुशी से दो-दो आने और दे दो, सरकार को सन्तुष्ट हो जाना चाहिए। आगे की फ़सल में अगर अनाज का भाव यही रहा, तो हमें आशा है कि आठ आने की छूट मिल जायेगी! यह मेरा प्रस्ताव है, आप लोग इस पर विचार करें।
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