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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


मेरे मित्र अमरकान्त जी की भी यही राय है। अगर आप लोग कोई और प्रस्ताव करना चाहते हैं, तो हम उस पर विचार करने को भी तैयार है।’

इसी वक़्त डाकिए ने सभा में आकर अमरकान्त के हाथों में एक लिफ़ाफ़ा रख दिया। पते की लिखावट ने बता दिया कि नैना का पत्र है। पढ़ते ही जैसे उस पर नशा छा गया। मुख पर ऐसा तेज आ गया, जैसे अग्नि में आहुति पड़ गयी हो। गर्व भरी आँखों से इधर-उधर देखा। मन के भाव जैसे छलाँगे मारने लगे। सुखदा की गिरफ्तारी और जेल-यात्रा का वृत्तान्त था। अहा! वह जेल गयी और वह यहाँ पड़ा हुआ है! उसे बाहर रहने का क्या अधिकार है? वह कोमलांगी जेल में है, जो कड़ी दृष्टि भी न सह सकती थी, जिसे रेशमी वस्त्र भी चुभते थे, मखमली गद्दे भी गड़ते थे, वह आज जेल की यातना सह रही है। वह आदर्श नारी, वह देश की लाज रखने वाली, वह कुल-लक्ष्मी आज जेल में है। अमर के हृदय का सारा रक्त सुखदा के चरणों पर गिरकर बह जाने के लिए मचल उठा। सुखदा! सुखदा! चारों ओर वही मूर्ति थी। संध्या की लालिमा से रंजित गंगा की लहरों पर बैठी हुई कौन चली जा रही है? सुखदा! ऊपर असीम आकाश में केसरिया साड़ी पहने कौन उठी जा रही है? सुखदा! सामने की शयाम पर्वतमान में गोधूलि का हार गले में डाले कौन खड़ी है? सुखदा! अमर विक्षिप्तों की भाँति कई कदम आगे दौड़ा। मानो उसकी पद-रज मस्तक पर लगा लेना चाहता हो।

सभा में कौन क्या बोला, इसकी उसे ख़बर नहीं। जब लोग अपने-अपने गाँवों को लौटे तो चन्द्रमा का प्रकाश फैल गया था। अमरकान्त अन्तःकरण कृतज्ञता से परिपूर्ण था। उसे अपने ऊपर किसी की रक्षा का साया उसी ज्योत्स्ना की भाँति फैला हुआ जान पड़ा। उसे प्रतीत हुआ, जैसे उसके जीवन में कोई विधान है, कोई आदेश है, कोई आशीर्वाद है, कोई सत्य है, और वह पग-पग पर उसे सँभालता है, बचाता है। एक महान इच्छा, एक महान चेतना के संसर्ग का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ।

सहसा मुन्नी ने पुकारा–‘लाला, आज तो तुमने आग ही लगा दी।’

अमर ने चौंककर कहा–‘मैंने!’

तब उसे अपने भाषण का एक-एक शब्द याद आ गया। उसने मुन्नी का हाथ पकड़कर कहा–‘हाँ मुन्नी, अब हमें वही करना पड़ेगा, जो मैंने कहा। जब तक हम लगान देना बन्द न करेंगे, सरकार यों ही टालती रहेगी।’

मुन्नी सशंक होकर बोली–‘आग में कूद रहे हो, और क्या?’

अमर ने ठट्टा मारकर कहा–‘आग में कूदने से स्वर्ग मिलेगा। दूसरा मार्ग नहीं है।’

मुन्नी चकित होकर उसका उसका मुख देखने लगी। इस कथन में हँसने का क्या प्रयोजन है, वह समझ न सकी।

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