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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…

सलीम यहाँ से कोई सात-आठ मील पर डाकबँगले में पड़ा हुआ था। हलक़े के थानेदार ने रात ही को उसे इस सभा की ख़बर दी और अमरकान्त का भाषण भी पढ़ सुनाया। उसे इन सभाओं की रिपोर्ट करते रहने की ताक़ीद कर दी गयी थी।

सलीम को बड़ा आश्चर्य हुआ। अभी एक दिन पहले अमर उससे मिला था, और यद्यपि उसने महन्त की इस नयी कार्रवाई का विरोध किया था; पर उसके विरोध में केवल खेद था, क्रोध का नाम भी न था। आज एकाएक यह परिवर्तन कैसे हो गया?

उसने थानेदार से पूछा–‘महन्तजी की तरफ़ से कोई ख़ास ज्यादती तो नहीं हुई?’

थानेदार ने जैसे इस शंका को जड़ से काटने के लिए तत्पर होकर कहा–‘बिलकुल नहीं हुजूर। उन्होंने तो सख्त ताक़ीद कर दी थी कि असामियों पर किसी किस्म का ज़ुल्म न किया जाय। बेचारे ने अपनी तरफ़ से चार आने की छूट दे दी, गाली-गुफ़्ता तो मामूली बात है।’

‘जलसे पर इस तकदीर का क्या असर हुआ?’

‘हुजूर, यही समझ लीजिए, जैसे पुआल में आग लग जाय। महन्तजी के इलाक़े में बड़ी मुश्किल से लगान वसूल होगा।’

सलीम ने आकाश की तरफ़ देखकर पूछा–‘आप इस वक़्त मेरे साथ सदर चलने को तैयार हैं?’

थानेदार को क्या उज्र हो सकता था। सलीम के जी में एक बार आया कि ज़रा अमर से मिले, लेकिन फिर सोचा, अगर अमर उसके समझाने से मानने वाला होता, तो यह आग ही क्यों लगाता?

सहसा थानेदार ने पूछा–‘हुजूर से तो इनकी जान–पहचान है।’

सलीम ने चिढ़कर कहा–‘यह आपसे किसने कहा? मेरी सैकड़ों से जान-पहचान है, तो फिर? अगर मेरा लड़का भी क़ानून के ख़िलाफ़ काम करे, तो मुझे उसकी तंबीह करनी पड़ेगी।’

थानेदार ने खुशामद की–‘मेरा यह मतबल नहीं था। हुजूर। हुजूर से जान-पहचान होने पर भी उन्होंने हुजूर को बदनाम करने में ताम्मुल न किया, मेरी यही मंशा थी।’

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