उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलीम ने कुछ जवाब तो न दिया; पर यह मुआमले का नया पहलू था। अमर को उसके इलाक़े में यह तूफ़ान न उठाना चाहिए था, आख़िर अफ़सरान यही तो समझेंगे कि यह नया आदमी है, अपने इलाक़े पर इसका रोब नहीं है।
बादल फिर घिरा आता था। रास्ता भी खराब था। उस पर अँधेरी रात, नदियों का उतार; मगर उसका ग़ज़नवी से मिलना ज़रूरी था। कोई तजर्बेकार अफ़सर इस कदर बदहवास न होता, पर सलीम नया आदमी था।
दोनों आदमी रातभर की हैरानी के बाद सवेरे सदर पहुँचे। आज मियाँ सलीम को आटे-दाल का भाव मालूम हुआ। यहाँ केवल हुकूमत नहीं है, हैरानी और जोख़िम भी है, इसका अनुभव हुआ। जब पानी का झोंका आता, या कोई नाला सामने आ पड़ता, तो वह इस्तीफ़ा देने की ठान लेता–‘यह नौकरी है या बला है! मजे़ से ज़िन्दगी गुज़रती थी। यहाँ कुत्ते-खसी में आ फँसा। लानत है ऐसी नौकरी पर! कहीं मोटर खड्ड में जा पड़े, तो हड्डियों का भी पता न लगे। नयी मोटर चौपट हो गयी।’
बँगले पर पहुँचकर उसने कपड़े बदले, नाश्ता किया और आठ बजे ग़ज़नवी के पास जा पहुँचा। थानेदार कोतवाली में ठहरा था। उसी वक़्त वह भी हाज़िर हुआ।
ग़ज़नवी ने वृत्तान्त सुनकर कहा–‘अमरकान्त कुछ दीवाना तो नहीं हो गया है। बातचीत से तो बड़ा शरीफ़ मालूम होता था, मगर लीडरी भी मुसीबत है! बेचारा कैसे नाम पैदा करे? शायद हज़रत समझें होंगे, यह लोग तो दोस्त हो ही गये, अब क्या फिक्र। ‘सैयाँ भये कोतवाल अब डर काहे का। ‘और ज़िलों में भी तो शोरिश है। मुमकिन है, वहाँ से ताक़ीद हुई हो। सूझी है इन सभों को दूर की और हक़ यह है कि किसानों को हालत नाज़ुक है। यों भी बेचारों को पेटभर दाना न मिलता था, अब तो जिन्सें और भी सस्ती हो गयीं। पूरा लगान कहाँ, आधे की भी गुंजाइश नहीं है, मगर सरकार का इन्तजाम तो होना ही चाहिए! हुकूमत में कुछ-न-कुछ खौफ़ और रोब का होना भी ज़रूरी है, नहीं उसकी सुनेगा कौन? किसानों को आज यकीन हो जाये कि आधा लगान देकर उनकी जान बच सकती है, तो कल वह चौथाई पर लड़ेगे और परसों पूरी मुआफ़ी का मुतालबा करेंगे। मैं तो समझता हूँ. आप जाकर लाला अमरकान्त को गिरफ़्तार कर लें। एक बार कुछ हलचल मचेगा, मुमकिन है, दो-चार गाँवों में फ़साद भी हो, मगर खुले हुए फ़साद को रोकना उतना मुश्किल नहीं है, जितना इस हवा को। मवाद जब फोड़े की सूरत में आ जाता है, तो उसे चीरकर निकाल दिया जा सकता है, लेकिन वही दिल, दिमाग की तरफ़ चला जाये, तो ज़िन्दगी का खात्मा हो जायेगा। आप अपने साथ सुपरिटेंडेंट को भी ले लें और अमर को दफ़ा १२४ में गिरफ़्तार कर लें। उस स्वामी को भी लीजिए। दारोग़ा जी, आप जाकर साहब बहादुर से कहिए तैयार रहें।’
सलीम ने व्यथित कण्ठ से कहा–‘मैं जानता कि यहाँ आते-ही-आते इस अजाब में जान फँसेगी, तो किसी और ज़िले की कोशिश करता। क्या अब मेरा तबादला नहीं हो सकता?’
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