उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
थानेदार ने पूछा–‘हुजूर खत न देंगे?’
ग़ज़नवी ने डाँट बतायी–‘ख़त की ज़रूरत नहीं है। क्या तुम इतना भी नहीं कह सकते?’
थानेदार सलाम करके चला गया, तो सलीम ने कहा– ‘आपने इसे बुरी तरह डाँटा बेचारा रूआँसा हो गया। आदमी अच्छा है।’
ग़ज़नवी ने मुस्कराकर कहा–‘जी हाँ, बहुत अच्छा आदमी है। रसद ख़ूब पहुँचाता होगा, मगर रिआया से उसकी दस गुनी वसूल करता है। जहाँ किसी मातहत ने ज़रूरत से ज़्यादा खिदमत और खुशामद की, मैं समझ जाता हूँ कि यह छटा हुआ गुर्गा है। आपकी लियाक़त का यह हाल है कि इलाके में सदा ही वारदातें होती हैं, एक का भी पता नहीं चलता। इसे झूठी शहादतें बनाना भी नहीं आता। बस, खुशामद की रोटियाँ खाता है। अगर सरकार पुलिस का सुधार कर सके, तो, स्वराज्य की माँग पचास साल के लिए टल सकती है। आज कोई शरीफ़ आदमी पुलिस से सरोकार नहीं रखना चाहता। थाने को बदमाशों का अड्डा समझकर उधर से मुँह फेर लेता है। यह सीमा इस राज का कलंक है। अगर आपको दोस्त को गिरफ़्तार करने में तक़ल्लुनफ़ हो, तो मैं डी. एस. पी. को ही भेज दूँ। उन्हें गिरफ़्तार करना फ़र्ज़ हो गया है। अगर आप यह नहीं चाहते कि उनकी जिल्लत हो, तो आप जाइए। अपनी दोस्ती का हक़ अदा करने ही के लिए जाइए। मैं जानता हूँ आपको सदमा हो रहा है। मुझे खुद रंज है। उस थोड़ी देर की मुलाक़ात में ही मेरे दिल पर उनका सिक्का जम गया। मैं उनके नेक इरादों की क़द्र करता हूँ, लेकिन हम और वह दो कैम्पों में है, स्वराज्य हम भी चाहते हैं, मगर इनकलाब की सूरत में नहीं। हालाँकि कभी-कभी मुझे भी ऐसा मालूम होता है कि इनक़लाब के सिवा हमारे लिए दूसरा रास्ता नहीं है। इतनी फ़ौज रखने की क्या ज़रूरत है, जो सरकार की आमदनी का आधा हज़म कर जाय। फ़ौज का खर्च आधा कर दिया जाये, तो किसानों का लगान बड़ी आसानी से आधा हो सकता है। मुझे अगर स्वराज्य से कोई खौफ़ है तो यह कि मुसलमानों की हालत कहीं और ख़राब न हो जाय! ग़लत तवारीखें पढ़-पढ़कर दोनों फ़िरके एक-दूसरे के दुश्मन हो गये हैं, और मुमकिन नहीं कि हिन्दू मौक़ा पाकर मुसलमानों से फ़र्जी अदावतों का बदला न लें, लेकिन इस ख़याल से तसल्ली होती है कि इस बीसवीं सदी में हिन्दुओं जैसी पढ़ी-लिखी जमाअत मज़हबी गरोबन्दी की पनाह नहीं ले सकती। मजहब का दौर खतम हो रहा है; बल्कि यों कहो कि ख़तम हो गया। सिर्फ़ हिन्दुस्तान में उसमें कुछ-कुछ जान बाक़ी है। यह तो दौलत का ज़माना है। अब कौम में अमीर और ग़रीब, जायदाद वाले और मरभुखे, अपनी-अपनी जमाअतें। उनमें कहीं ज़्यादा खूरेजी होगी, कहीं ज्य़ादा तंगदिली होगी। आख़िर एक-दो-सदी के बाद दुनिया में एक सल्तनत हो जायेगी। सब का एक क़ानून, एक निज़ाम होगा, क़ौम के खादिम कौम पर हुकूमक करेंगे, मजहब शख़्ती चीज़ होगी। न कोई राजा होगा, न कोई परजा।’
फोन की घण्टी बजी, ग़ज़नवी ने चोंगा कान से लगाया–‘मि. सलीम कब चलेंगे?’
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