उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
ग़ज़नवी ने पूछा–‘ आप कब तक तैयार होंगे?’
‘मैं तैयार हूँ।’
‘तो एक घण्टे में आ जाइए।’
सलीम ने लम्बी साँस खींचकर कहा–‘तो मुझे जाना ही पड़ेगा?’
‘बेशक! मैं आपके और अपने दोस्त को पुलिस के हाथ में नहीं देना चाहता?’
‘किसी हीले से अमर को यहीं बुला क्यों न लिया जाय?’
‘वह इस वक़्त नहीं आयेंगे।’
सलीम ने सोचा, अपने शहर में जब यह ख़बर पहुँचेगी कि मैंने अमर को गिरफ़्तार किया तो मुझे पर कितने जूते पड़ेंगे! शान्तिकुमार तो नोचे ही खायेंगे और सकीना तो शायद मेरा मुँह देखना भी पसन्द न करे। इस ख़याल से वह काँप उठा। सोने की हँसिया न उगलते बनती थी, न निगलते।
उसने उठकर कहा–‘आप डी. एस. पी. को भेज दें। मैं नहीं जाना चाहता।’
ग़ज़नवी ने गम्भीर होकर पूछा–‘आप चाहते हैं कि उन्हें वहीं से हथकड़ियाँ पहनाकर और कमर में रस्सी डालकर चार कांस्टेबल के साथ लाया जाय और जब पुलिस उन्हें लेकर चले, तो उस भीड़ को हटाने के लिए गोलियाँ चलानी पड़ें?’
सलीम ने घबड़ाकर कहा–‘क्या डी.एस. पी. को इन सख्तियों से रोका नहीं जा सकता?’
‘अमरकान्त आपके दोस्त हैं, डी. एस. पी. के दोस्त नहीं।’
‘तो फिर आप डी. एस. पी. को मेरे साथ न भेजें।’
‘आप अमर को यहाँ ला सकते हैं?’
‘दग़ा करनी पड़ेगी।’
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