उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
3 पाठकों को प्रिय 31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
७
अमरकान्त ने आम जलसों में बोलना तो दूर रहा, शरीक होना भी छोड़ दिया; पर उसकी आत्मा इस बन्धन से छटपटाती रहती थी और वह कभी-कभी सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में अपने मनोद्दगारों को प्रकट करके सन्तोष लाभ करता था। अब वह कभी-कभी दुकान पर भी आ बैठता। विशेषकर छुट्टियों के दिन तो वह अधिकतर दुकान पर रहता था। उसे अनुभव हो रहा था कि मानवी प्रकृति का बहुत-कुछ ज्ञान दुकान पर बैठकर प्राप्त किया जा सकता है। सुखदा और रेणुका दोनों के स्नेह और प्रेम ने उसे जकड़ लिया था। हृदय की जलन जो पहले घरवाली से, और उसके फलस्वरूप, समाज से विद्रोह करने में अपने को सार्थक समझती थी, अब शान्त हो गयी थी। रोता हुआ बालक मिठाई पाकर रोना भूल गया था।
एक दिन अमरकान्त दुकान पर बैठा था कि आसामी ने आकर पूछा– ‘भैया, कहाँ हैं बाबूजी, बड़ा ज़रूरी काम था।’
अमर ने देखा–‘अधेड़ बलिष्ठ, काला,कठोर आकृति का मनुष्य है। नाम है काले खाँ। रुखाई से बोला–‘वह कहीं गये हुए हैं। क्या काम है?’
‘बड़ा जरूरी काम था। कुछ कह नहीं गये, कब तक आयेंगे?’
अमर को शराब की ऐसी दुर्गन्ध आयी कि उसने नाक बन्द कर ली और मुँह फेरकर बोला–‘क्या तुम शराब पीते हो?’
काले खाँ ने हँसकर कहा–‘शराब किसे मयस्सर होती है लाला, रूखी रोटियाँ तो मिलती नहीं। आज एक नातेदारी में गया था, उन लोगों ने पिला दी।’
वह और समीप आ गया और अमर के कान के पास मुँह लगाकर बोला–‘एक रकम दिखाने लाया था। कोई दस तोले की होगी। बाज़ार में ढाई सौ से कम की नहीं है; लेकिन मैं तुम्हारा पुराना आसामी हूँ। जो कुछ दे दोगे, ले लूँगा।’
उसने कमर से एक जोड़ा सोने के कड़े निकाले और अमर के सामने रख दिये। अमर ने कड़ों को बिना उठाए हुए पूछा–‘यह कड़े तुमने कहाँ पाए?’
काले खाँ ने बेहयाई से मुस्कराकर कहा–‘यह न पूछो राजा, अल्लाह देने वाला है।’
अमरकान्त ने घृणा का भाव दिखाकर कहा–‘कहीं से चुरा लाये होगे?’
|