उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘मुआफ़ कीजिए। वहाँ मुझे और भी लज्जित करोगी।’
‘नहीं, सच कहती हूँ। अच्छा बताओ, बालक किसको पड़ेगा, मुझे या तुम्हें? मैं कहती हूँ तुम्हें पड़ेगा।’
‘मैं चाहता हूँ तुम्हें पड़े।’
‘यह क्यों? मैं तो चाहती हूँ तुम्हें पड़े।’
‘तुम्हें पड़ेगा, तो मैं उसे और ज़्यादा चाहूँगा।’
‘अच्छा उस स्त्री की कुछ ख़बर मिली, जिसे गोरों ने सताया था?’
‘नहीं, फिर तो कोई ख़बर न मिली।’
‘एक दिन जाकर सब कोई उसका पता क्यों नहीं लगाते, या स्पीच देकर ही अपने कर्त्तव्य से मुक्त हो गये?’
अमरकान्त ने झेंपते हुए कहा–‘कल जाऊंगा।’
‘ऐसी होशियारी से पता लगाओ कि किसी को कानों-कान ख़बर न हो; अगर घरवालों ने उसका बहिष्कार कर दिया हो, तो उसे लाओ। अम्माँ को उसे अपने साथ रखने में कोई आपत्ति न होगी और होगी तो मैं अपने पास रख लूँगी।’
अमरकान्त ने श्रद्धा-पूर्ण नेत्रों से सुखदा को देखा। इसके हृदय में कितनी दया, कितनी सेवा-भाव, कितनी निर्भीकता है। इसका आज उसे पहली बार ज्ञान हुआ।
उसने पूछा–‘तुम्हें उससे ज़रा भी घृणा न होगी?’
सुखदा ने सकुचाते हुए कहा–‘अगर मैं कहूँ, न होगी, तो असत्य होगा। होगी अवश्य; पर संस्कारों को मिटाना होगा। उसने कोई अपराध नहीं किया, फिर सजा क्यों दी जाए?’
अमरकान्त ने देखा सुखदा निर्मल नारीत्व की ज्योति में नहीं उठी है। उसका देवीत्व जैसे प्रस्फुटित होकर उससे आलिंगन कर रहा है।
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