उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
दोनों एक क्षण भूमि और आकाश की ओर ताकते रहे। तब अमरकान्त ने परास्त होकर कहा–‘अच्छी बात है। आज से अपना मुँह सी लूँगा। फिर तुम्हारे सामने ऐसी शिकायत आये, तो मेरे कान पकड़ना।’
सुखदा नर्म होकर बोली–‘तुम नाराज होकर तो यह प्रण नहीं कर रहे हो? मैं तुम्हारी अप्रसन्नता से थर-थर काँपती हूँ। मैं भी जानती हूँ कि हम लोग पराधीन हैं। पराधीनता मुझे भी उतनी ही अखरती है, जितनी तुम्हें। हमारे पाँवों में तो दोहरी बेड़ियाँ हैं–समाज की अलग, सरकार की अलग; लेकिन आगे-पीछे भी तो देखना होता है। देश के साथ हमारा जो धर्म है, वह और प्रबल रूप में पिता के साथ है, और उससे भी प्रबल रूप में अपनी सन्तान के साथ। पिता को दुःखी और सन्तान को निस्सहाय–देशधर्म का पालन ऐसा ही है जैसे कोई अपने घर में आग लगाकर खुले आकाश में रहे। जिस शिशु को मैं अपना हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाल रही हूँ, उसे मैं चाहती हूँ, तुम भी अपना सर्वस्व समझो। तुम्हारे सारे स्नेह और वात्सल्य और निष्ठा का मैं एकमात्र उसी को अधिकारी देखना चाहती हूँ।’
अमरकान्त सिर झुकाए यह उपदेश सुनता रहा। उसकी आत्मा लज्जित थी और उसे धिक्कार रही थी। उसने सुखदा और शिशु दोनों ही के साथ अन्याय किया है। शिशु का कल्पना-चित्र उसकी आँखों में खिंच गया। वह नवनीता-सा कोमल शिशु उसकी गोद में खेल रहा था। उसकी सम्पूर्ण चेतना इसी कल्पना में मग्न हो गयी। दीवार पर शिशु कृष्ण का एक सुन्दर चित्र लटक रहा था। उस चित्र में आज उसे जितना मार्मिक आनन्द हुआ, उतना और कभी न हुआ था। उसकी आँखें सजल हो गयीं।
सुखदा ने उसे पान का एक बीड़ा देते हुए कहा– ‘अम्माँ कहती हैं, बच्चे को लेकर मैं लखनऊ चली जाऊँगी। मैंने कहा–अम्माँ तुम्हें बुरा लगे या भला, मैं अपना बालक न दूँगी।’
अमरकान्त ने उत्सुक होकर पूछा–‘तो बिगड़ी होंगी?’
‘नहीं जी बिगड़ने की क्या बात थी। हाँ, उन्हें कुछ बुरा जरूर लगा होगा; लेकिन मैं दिल्लगी में भी अपने सर्वस्व को नहीं छोड़ सकती।’
‘दादा ने पुलिस कर्मचारी की बात अम्माँ से भी कही होगी?’
‘हाँ, मैं जानती हूँ कही है। जाओ आज अम्माँ तुम्हारी कैसी ख़बर लेती हैं।’
‘मैं आज जाऊंगा ही नहीं।’
‘चलो मैं तुम्हारी वकालत कर दूँगी।’
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