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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा का प्रसवकाल समीप आता जाता था। उसका मुख पीला पड़ गया था, भोजन बहुत कम करती थी और हँसती-बोलती भी बहुत कम थी। वह तरह-तरह के दुःस्वप्न देखती रहती थी इससे चित्त और भी सशंकित रहता था। रेणुका ने जनन-सम्बन्धी कई पुस्तकें उसको मँगा दी थीं। इन्हें पढ़कर वह और भी चिन्तित रहती थी। शिशु की कल्पना से चित्त में एक गर्वमय उल्लास होता था; पर इसके साथ ही हृदय में कम्पन भी होता था....न जाने क्या होगा?

उस दिन संध्या समय अमरकान्त उसके पास आया, तो वह जली बैठी थी। तीक्ष्ण नेत्रों से देखकर बोली– ‘तुम मुझे थोड़ी-सी संखिया क्यों नहीं दे देते? तुम्हारा गला भी छूट जाए, मैं भी जंजाल से मुक्त हो जाऊँ।’

अमर इन दिनों आदर्श पति बना हुआ था। रूप-ज्योति से चमकती हुई सुखदा आँखों को उन्मत्त करती थी; पर मातृत्व के भार से लदी हुई यह पीले मुखवाली रोगिणी उसके हृदय को ज्योति से भर देती थी। वह उसके पास बैठा हुआ उसके रूखे केशों और सूखे हाथों से खेला करता। उसे इस दशा में लाने का अपराधी वह है; इसलिए इस भार को सह्य बनाने के लिए वह सुखदा का मुँह जोहता रहता था। सुखदा उससे कुछ फरमाइश करे, यही इन दिनों उसकी सबसे बड़ी कामना थी। वह एक बार स्वर्ग के तारे तोड़ लाने पर भी उतारू हो जाता। बराबर उसे अच्छी-अच्छी किताबें सुनाकर उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहता था। शिशु की कल्पना से उसे जितना आनन्द होता था; उससे कहीं अधिक सुखदा के विषय में चिन्ता थी–न जाने क्या होगा? घबड़ाकर भारी स्वर में बोला–‘ऐसा क्यों कहती हो सुखदा, मुझसे ग़लती हुई हो, तो बता दो।’

सुखदा लेटी हुई थी। तकिए के सहारे टेक लगाकर बोली–‘तुम आम जलसों में कड़ी-कड़ी स्पीचें देते फिरते हो इसका इसके सिवा और क्या मतलब है कि तुम पकड़े जाओ और अपने साथ घर को भी ले डूबो। दादा से पुलिस के किसी बड़े अफ़सर ने कहा है। तुम उनकी कुछ मदद तो करते नहीं, उल्टे और उनके किए-कराये को धूल में मिलाने को तुले बैठे हो। मैं तो आप ही अपनी जान से मर रही हूँ, उस पर तुम्हारी यह चाल और भी मारे डालती है। महीने भर डॉक्टर साहब के पीछे हलकान हुए। उधर से छुट्टी मिली, तो यह पचड़ा ले बैठे। क्यों तुमसे शान्तिपूर्वक नहीं बैठा जाता? तुम अपने मालिक नहीं हो, कि जिस राह चाहो, जाओ। तुम्हारे पाँव में बेड़ियाँ हैं। क्या अब भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं?’

अमरकान्त ने अपनी सफ़ाई दी–‘मैंने तो कोई ऐसी स्पीच नहीं दी, जो कड़ी कही जा सके।’

‘तो दादा झूठ कहते थे।’

‘इसका तो यह अर्थ है कि मैं अपना मुँह सी लूँ।’

‘हाँ, तुम्हें अपना मुँह सीना पड़ेगा।’

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