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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सलीम और अमर तो ज़रा देर में हँसने-बोलने लगे। इस संग्राम की चर्चा करते उनकी ज़बान न थकती थी स्टेशन मास्टर से कहा, गाड़ी में मुसाफ़िरों से कहा, रास्ते में जो मिला उससे कहा। सलीम तो अपने साहस और शौर्य में खूब डींगे मारता था, मानो कोई क़िला जीत आया है और जनता को चाहिए कि उसे मुकुट पहनाये, उसकी गाड़ी खींचे, उसका जुलूस निकाले; किन्तु अमरकान्त चुपचाप डॉक्टर साहब के पास बैठा हुआ था। आज के अनुभव ने उसके हृदय पर ऐसी चोट लगाई थी, जो कभी न भरेगी। वह मन-ही-मन इस घटना की व्याख्या कर रहा था। इन टके के सैनिकों की इतनी हिम्मत क्यों हुई? यह गोरे सिपाही इंग्लैण्ड के निम्नतम श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इनका इतना साहस कैसे हुआ? इसीलिए कि भारत पराधीन है। यह लोग जानते हैं कि यहाँ के लोगों पर उनका आतंक छाया हुआ है। वह जो अनर्थ चाहें, करें, कोई चूँ नहीं कर सकता। यह आतंक दूर करना होगा। इस पराधीनता की जंजीर को तोड़ना होगा।

इस जंजीर को तोड़ने के लिए वह तरह-तरह के मंसूबे बाँधने लगा, जिसमें यौवन का उन्माद था, लड़कपन की उग्रता थी और कच्ची बुद्धि की बहक।

डॉ. शान्तिकुमार एक महीने तक अस्पताल में रहकर अच्छे हो गये। तीनों सैनिकों पर क्या बीती, नहीं कहा जा सकता; पर अच्छे होते ही पहला काम जो डॉक्टर साहब ने किया, वह ताँगे पर बैठकर छावनी में जाना और उन सैनिकों का कुशलक्षेम पूछना था। मालूम हुआ कि वह तीनों भी कई-कई दिन अस्पताल में रहे, फिर तबदील कर दिए गए। रेज़िमेंट के कप्तान ने डॉक्टर साहब से अपने आदमियों के अपराध की क्षमा माँगी और विश्वास दिलाया कि भविष्य में सौनिकों पर ज़्यादा कड़ी निगाह रखी जायेगी। डॉक्टर साहब की इस बीमारी में अमरकान्त ने तन-मन से उनकी सेवा की, केवल भोजन करने और रेणुका से मिलने के लिए घर जाता, बाकी सारा दिन और सारी रात उन्हीं की सेवा में व्यतीत करता। रेणुका भी दो-तीन बार डॉक्टर साहब को देखने गयीं।

इधर से फ़ुरसत पाते ही अमरकान्त काँग्रेस के कामों में ज़्यादा उत्साह से शरीक होने लगा। चन्दा देने में तो उस संस्था में कोई उसकी बराबरी न कर सकता था।

एक बार एक आम जलसे में वह ऐसी उद्दण्डता से बोला कि पुलिस सुपरिंटेंडेट ने लाला समरकान्त को बुलाकर लड़के को सँभालने की चेतावनी दे डाली। लालाजी ने वहाँ से लौटकर खुद तो अमरकान्त से कुछ न कहा, सुखदा और रेणुका दोनों के जड़ दिया। अमरकान्त पर अब किसका शासन है, वह खूब समझते थे। इधर बेटे से वह स्नेह करने लगे थे। हर महीने पढ़ाई का खर्च देना पड़ता था, तब उसका स्कूल जाना उन्हें ज़हर लगता था, काम में लागाना चाहते थे और उसके काम न करने पर बिगड़ते थे। अब पढ़ाई का कुछ खर्च न देना पड़ता था; इसलिए कुछ न बोलते थे; बल्कि कभी-कभी संदूक की कुँजी न मिलने या उठकर सन्दूक खोलने के कष्ट से बचने के लिए, बेटे से रुपये उधार ले लिया करते। अमरकान्त न माँगता, न वह देते।

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