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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


ख़ैरियत यह हुई कि जख्म डॉक्टर की जाँघ में था। सभी छात्र ‘तत्काल धर्म’ जानते थे। घाव का ख़ून बन्द किया और पट्टी बाँध दी।

उसी वक़्त एक युवती खेत से निकली और मुँह छिपाए, लंगड़ाती, कपड़े सँभालती, एक तरफ़ चल पड़ी। अबला लज्जावश, किसी से कुछ कहे बिना, सबकी नजरों से दूर निकल जाना चाहती थी। उसकी जिस अमूल्य वस्तु का अपहरण किया गया था, उसे कौन दिला सकता था? दुष्टों को मार डालो, इससे तुम्हारी न्याय-बुद्धि को सन्तोष होगा, उसकी तो चीज़ गयी, वह गयी। वह अपना दुःख क्यों रोये, क्यों फ़रियाद करे सारे संसार की सहानुभूति, उसके किस काम की है?

सलीम एक क्षण युवती की ओर ताकता रहा। फिर स्टिक संभालकर उन तीनों को पीटने लगा। ऐसा जान पड़ता था कि उन्मत्त हो गया है।

डॉक्टर साहब ने पुकारा–‘क्या करते हो सलीम! इससे क्या फ़ायदा? यह इन्सानियत के खिलाफ़ है कि गिरे हुओं पर हाथ उठाया जाय।’

सलीम ने दम लेकर कहा–‘मैं एक शैतान को भी जिन्दा न छोड़ूँगा। मुझे फाँसी हो जाय, कोई गम नहीं। ऐसा सबक़ देना चाहिए कि फिर किसी बदमाश को इसकी जुर्अत न हो।’

फिर मजूरों की तरफ़ देखकर बोला–‘तुम इतने आदमी खड़े ताकते रहे और तुमसे कुछ भी नहीं हो सका। तुममें इतनी ग़ैरत भी नहीं? अपनी बहू-बेटियों की आबरू की हिफ़ाजत भी नहीं कर सकते? समझते होगे कौन हमारी बहू-बेटी है। इस देश में जितनी बेटियाँ हैं, सब तुम्हारी बेटियाँ हैं, जितनी बहुएँ हैं, सब तुम्हारी बहुएँ हैं, जितनी मांएँ हैं, सब तुम्हारी माएं हैं। तुम्हारी आंखों के सामने यह अनर्थ हुआ और तुम कायरों की तरह खड़े ताकते रहे! क्यों सब-के-सब को क्या यहीं छोड़ जाओगे?’

सलीम ने मस्तक सिकोड़ कर कहा–‘हम उनको लादकर ले जाने के ज़िम्मेदार नहीं हैं। मेरा तो जी चाहता है, उन्हें खोदकर दफ़न कर दूँ।’

आख़िर डॉक्टर ने बहुत समझाने के बाद सलीम राज़ी हुआ। तीनों गोरे भी गाड़ी पर लादे गये और गाड़ी चली। सब-के-सब मजूर अपराधियों की भाँति सिर झुकाए कुछ दूर तक गाड़ी के पीछे-पीछे चले। डॉक्टर ने उनको बहुत धन्यावद देकर विदा किया। नौ बजते-बजते समीप का रेवले स्टेशन मिला। इन लोगों ने गोरों को तो वहीं पुलिस के चार्ज में छोड़ दिया और आप डॉक्टर साहब के साथ गाड़ी पर बैठकर घर चले।

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