उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘नहीं, जो कम खाता है, वही काम कर सकता है। पेटू के लिए सबसे बड़ा काम भोजन पचाना है।’
सलोनी कल से बीमार थी। अमर उसे देखने चला था कि मदरसे के सामने ही मोटर आते देखकर रुक गया। शायद इस गाँव में मोटर पहली बार आयी हो। वह सोच रहा था, किसकी मोटर है कि सलीम उसमें से उतर पड़ा। अमर ने लपककर हाथ मिलाया–‘कोई ज़रूरी काम था, मुझे क्यों न बुला लिया?’
दोनों आदमी मदरसे में आये। अमर ने एक खाट लाकर डाल दी और बोला–‘तुम्हारी क्या खातिर करूँ। यहाँ तो फ़कीरों की हालत है। शर्बत बनवाऊँ? ’
सलीम ने सिगार जलाते हुए कहा–‘नहीं कोई तक़ल्लुफ़ नहीं। मि. ग़ज़नवी तुमसे किसी मुआमले में सलाह करना चाहते हैं। मैं आज ही जा रहा हूँ। सोचा तुम्हें भी लेता चलूँ। तुमने तो कल आग लगा ही दी। अब तहक़ीक़ात से क्या फ़ायदा होगा? वह तो बेकार हो गयी।’
अमर ने कुछ झिझकते हुए कहा–‘महन्तजी ने मज़बूर कर दिया। क्या करता?’ सलीम ने दोस्ती की आड़ ली–‘मगर इतना तो सोचते कि यह मेरा इलाक़ा है और यहाँ की सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। मैंने सड़क के किनारे अक्सर गाँवों में लोगों के जमाव देखे। कहीं-कहीं तो मेरी मोटर पर पत्थर भी फेंके गये। यह अच्छे आसार नहीं है। मुझे ख़ौफ है, कोई हंगामा न हो जाये। अपने हक़ के लिए या बेज़ा जुल्म के ख़िलाफ रिआया में जोश हो तो मैं इसे बुरा नहीं समझता, लेकिन यह लोग कायदे-क़ानून के अन्दर रहेंगे, मुझे इसमें शक है। तुमने गूँगों को आवाज़ दी, सोतों को जगाया; लेकिन ऐसी तहरीक के लिए जितने ज़ब्त और सब्र की ज़रूरत है, उसका दसवाँ भी हिस्सा मुझे नज़र नहीं आता।’
अमर को इस कथन में शासन–पक्ष की गन्ध आयी। बोला–‘तुम्हें य़कीन है कि तुम भी वह गलती नहीं कर रहे, जो हुक्काम किया करते हैं? जिनकी ज़िन्दगी आराम और फ़राग़त से गुज़र रही है, उनके लिए सब्र और ज़ब्त ही हाँक लगाना आसान है, लेकिन जिनकी ज़िन्दगी का हरेक दिन एक नयी मुसीबत है, वह नजात को अपनी जनवासी चाल से आने का इन्तज़ार नहीं कर सकते। यह उसे खींच लाना चाहते हैं, और जल्द-से-जल्द।’
‘मगर नजात के पहले कयामत आयेगी, यह भी याद रहे।’
‘हमारे लिए यह अँधेरे ही क़यामत हैं। जब पैदावार लागत से भी कम हो, तो लगान की गुंजाइश कहाँ? उस पर भी हम आठ आने पर राज़ी थे, मगर बारह आने हम किसी तरह नहीं दे सकते। आख़िर सरकार किफ़ायत क्यों नहीं करती? पुलिस और फ़ौज और इन्तज़ाम पर क्यों इतनी बेदर्दी से रुपये उड़ाये जाते हैं? किसान गूँगे हैं, बेबस हैं, कमज़ोर हैं। क्या इसलिए सारा नज़ला उन्हीं पर गिरना चाहिए?’
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