उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलीम ने अधिकार–गर्व से कहा–‘इसका नतीजा क्या होगा, जानते हो? गाँव-के-गाँव बरबाद हो जायेंगे, फ़ौजी क़ानून जारी हो जायेगा, शायद पुलिस बैठा दी जायेगी, फ़सलें नीलाम कर दी जायेंगी, जमीनें जब्त हो जायेंगी। क़यामत का सामना होगा।’
अमरकान्त ने अविचलित भाव से कहा–‘जो कुछ भी हो मर-मिटना जुल्म के सामने सिर झुकाने से अच्छा है।’
मदरसे के सामने हुजूर बढ़ता जाता था। सलीम ने विवाद का अन्त करने के लिए कहा–‘चलो इस मुआमले पर रास्ते में बहस करेंगे। देर हो रही है।’
अमर ने चटपट कुरता गले में डाला और आत्मानन्द से दो-चार ज़रूरी बातें करते आ गया। दोनों आदमी आकर मोटर पर बैठे। मोटर चली, तो सलीम की आँखों में आँसू डबडबाये हुए थे।
अमर ने सशंक होकर पूछा–‘मेरे साथ दग़ा तो नहीं कर रहे हो?’
सलीम अमर के गले लिपटकर बोला–‘इसके सिवा और दूसरा रास्ता न था। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें पुलिस के हाथों जलील किया जाये।’
‘तो ज़रा ठहरो, मैं अपनी कुछ ज़रूरी चीज़ें तो ले लूँ।’
‘हाँ, हाँ, ले लो, लेकिन राज खुल गया, तो यहाँ मेरी लाश नज़र आयेगी।’
‘तो चलो कोई मुज़ायका नहीं।’
गाँव के बाहर निकले ही थे कि मुन्नी आती हुई दिखाई दी। अमर ने मोटर रुकवाकर पूछा–‘तुम कहाँ गयी थी मुन्नी? धोबी से मेरे कपड़े लेकर रख लेना, सलोनी काकी के लिए मेरी कोठरी में ताक पर दवा रखी है। पिला देना।’
मुन्नी ने सहमी हुई आँखों से देखकर पूछा–‘तुम कहाँ जाते हो?’
‘एक दोस्त के यहाँ दावत खाने जा रहा हूँ।’
मोटर चली। मुन्नी ने पूछा–‘कब तक आओगे?’
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