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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर ने सिर निकालकर उसे दोनों हाथ जोड़कर कहा– ‘जब भाग्य लाये।’

साथ के पढ़े साथ के खेले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल-धप्पा, हँसी मज़ाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक, दोनों ही देशभक्त, दोनों ही किसानों के शुभेच्छु; पर एक अफ़सर था, दूसरा कैदी। दोनों सटे हुए बैठे थे, पर जैसे बीच में कोई दीवार खड़ी हो। अमर प्रसन्न था, मानो शहादत के जीने पर चढ़ रहा हो। सलीम दुःखी था, जैसे भरी सभा में अपनी जगह से उठा दिया गया हो। विकास के सिद्धान्त का ख़ुली सभा में समर्थन करके उसकी आत्मा विजयी होती। निरंकुशता की शरण लेकर वह जैसे कोठरी में छिपा बैठा था।

सहसा सलीम ने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा–’क्यों अमर, खफा हो?’

अमर ने प्रसन्न मुख से कहा–’बिलकुल नही। मैं तुम्हें अपना वही पुराना दोस्त समझ रहा हूँ। उसूलों की लड़ाई हमेशा होती रही है और होती रहेगी। दोस्ती में इससे फ़र्क़ नहीं आता।’

सलीम ने अपनी सफाई दी–‘भाई, इन्सान इन्सान है, दो मुखालिफ गिरोहों में आकर दिल में कीना या मलाल पैदा हो जाय, तो ताज्जुब नहीं। पहले डी.एस. पी. को भेजने की सलाह थीं, पर मैंने इसे मुनासिब न समझा।’

‘इसके लिए मैं तुम्हारा बड़ा एहसानमन्द हूँ। मेरे ऊपर कोई मुक़दमा चलाया जायेगा?’

‘हाँ, तुम्हारी तकदीरों की रिपोर्ट मौजूद है, और शहादतें भी जमा हो गयी है। तुम्हारा क्या ख़याल है, तुम्हारी गिरफ्तारी से यह शोरिश दब जायेगी या नहीं।’

‘कुछ कह नहीं सकता। अगर मेरी गिरफ्तारी या सजा से दब जाय, तो इसका दब जाना ही अच्छा।’

उसने एक क्षण के बाद फिर कहा–‘रियाआ को मालूम है कि उनके क्या-क्या हक़ हैं। यह भी मालूम है कि हकों की हिफ़ाजत के लिए क़ुरबानियाँ करनी पड़ती हैं। मेरा फ़र्ज़ यहीं तक खत्म हो गया। अब वह जाने और उनका काम जाने। मुमकिन है, सख्तियों से दब जायें, मुमकिन है न दबें, लेकिन दबें या उठें उन्हें चोट ज़रूर लगी है। रिआया का दब जाना, किसी सरकार की कामयाबी की दलील नहीं है।’

मोटर के जाते ही सत्य मुन्नी के सामने चमक उठा। वह आवेश में चिल्ला उठी–‘लाला पकड़ गये!’ और उसी आवेश में मोटर के पीछे दौड़ी। चिल्लाती जाती थी–‘लाला पकड़ गये।’

वर्षाकाल में किसानों को हार में बहुत काम नहीं होता। अधिकतर लोग घरों पर होते हैं। मुन्नी की आवाज़ मानो ख़तरे का बिगुल थी। दम-के-दम में सारे गाँव में यह आवाज़ गूँज उठी–‘भैया पकड़ गये!’

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