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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


स्त्रियाँ घरों में से निकल पड़ीं–‘भैया पकड़ गये!’

क्षण मात्र में सारा गाँव जमा हो गया और सड़क की तरफ़ दौड़ा। मोटर घूमकर सड़क से जा रही थी। पगडंडियों का एक सीधा रास्ता था। लोगों ने अनुमान किया, अभी इस रास्ते मोटर पकड़ी जा सकती है। सब उसी रास्ते दौड़े।

काशी बोला–‘मरना तो एक दिन है ही।’

मुन्नी ने कहा–‘पकड़ना है, तो सब को पकड़े। ले चले सब को।’

पयाग बोला–‘सरकार का काम है चोर-बदमाशों को पकड़ना या ऐसों को जो दूसरों के लिए जान लड़ा रहे हैं। वह देखो मोटर आ रही है। बस, सब रास्ते में खड़े हो जाओ। कोई न हटना, चिल्लाने दो।’

सलीम मोटर रोकता हुआ बोला–‘अब कहो भाई। निकालूँ पिस्तौल?’

अमर ने उसका हाथ पकड़कर कहा–‘नहीं-नहीं, मैं इन्हें समझाये देता हूँ।’

‘मुझे पुलिस के दो-चार आदमियों को साथ ले लेना था।’

‘घबड़ाओ मत, पहले मैं मरूँगा, फिर तुम्हारे ऊपर कोई हाथ उठायेगा।’

अमर ने तुरन्त मोटर से सिर निकालकर कहा–‘ बहनों और भाइयों, अब मुझे विदा कीजिए। आप लोगों के सत्संग में मुझे जितना स्नेह और सुख मिला, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता। मैं परदेशी मुसाफ़िर था। आपने मुझे स्थान दिया, आदर दिया, प्रेम दिया! मुझसे भी जो कुछ सेवा हो सकी, वह मैंने की। अगर मुझसे कुछ भूल-चूक हुई हो, तो क्षमा करना। जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे छोड़ना मत, यही मेरी याचना है। सब काम ज्यों-का-त्यों होता रहे, यही सबसे बड़ा उपहार है, जो आप मुझे दे सकते हैं। प्यारे बालकों, मैं जा रहा हूँ लेकिन मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।’

काशी ने कहा–‘भैया, हम सब तुम्हारे साथ चलने को तैयार हैं।’

अमर ने मुस्कराकर उत्तर दिया–‘नेवता तो मुझे मिला है, तुम लोग कैसे जाओगे?’

किसी के पास इसका जवाब न था। भैया बात ही ऐसी कहते हैं कि किसी से उसका जवाब नहीं बन पड़ता।

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