उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मुन्नी सबसे पीछे खड़ी थी, उसकी आँखें सजल थीं। इस दशा में अमर के सामने कैसे जाय? हृदय में जिस दीपक को जलाए, वह अपने अँधेरे जीवन में प्रकाश का स्वप्न देख रही थी, वह दीपक कोई उसके हृदय से निकाले लिए जाता है। वह सूना अन्धकार क्या फिर वह सह सकेगी!
सहसा उसने उत्तेजित होकर कहा–‘इतने जने खड़े ताकते क्यों हो! उतार लो मोटर से!’ जनसमूह में एक हलचल मची। एक ने दूसरे की ओर कै़दियों की तरह देखा, कोई बोला नहीं।
मुन्नी ने फिर ललकारा–‘खड़े ताकते क्या हो, तुम लोगों में कुछ दया है या नहीं?
जब पुलिस और फ़ौज इलाके को ख़ून से रंग दे, तभी...’
अमर ने मोटर से निकलकर कहा–‘मुन्नी, तुम बुद्धिमती होकर ऐसी बातें कर रही हो! मेरे मुँह में कालिख मत लगाओ।’
मुन्नी उन्मत्तों की भाँति बोली–‘मैं बुद्धिमान नहीं, मैं तो मूरख हूँ, गँवारिन हूँ।
आदमी एक-एक पत्ती के लिए सिर कटा देता है, एक-एक बात पर जान दे देता है। क्या हम लोग ताकते रहें और तुम्हें कोई पकड़ ले जाय? तुमने कोई चोरी की है डाका मारा है?’
कई आदमी उत्तेजित होकर मोटर की ओर बढ़े; अमरकान्त की डाँट सुनकर ठिठक गए–‘क्या करते हो! पीछे हट जाओ। अगर मेरे इतने दिनों की सेवा और शिक्षा का यही फल है, तो मैं कहूँगा कि मेरा सारा परिश्रम धूल में मिल गया। यह हमारा धर्मयुद्ध है और हमारी जीत, हमारे त्याग, हमारे बलिदान और हमारे सत्य पर है।’
जादू का-सा असर हुआ। लोग रास्ते से हट गये। अमर मोटर में बैठ गया और मोटर चली।
मुन्नी ने आँखों में क्षोभ और क्रोध के आँसू भर अमरकान्त को प्रणाम किया। मोटर के साथ जैसे उसका हृदय भी उड़ा जाता हो।
पाँचवाँ भाग
१
लखनऊ का सेंट्रल जेल शहर से बाहर ख़ुली हुई जगह में है। सुखदा उसी जेल के ज़नाने वार्ड में एक वृक्ष के नीचे खड़ी बादलों की घुड़दौड़ देख रही है। बरसात बीत गयी है। आकाश में बड़ी धूम से घेर-घार होता है। पर छीटें पड़कर रह जाते हैं। दानी के दिल में अब भी दया है, पर हाथ खाली है। जो कुछ था, लुटा चुका।
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