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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


जब कोई अन्दर आता है और सदर द्वार खुलता है, तो सुखदा द्वार के सामने आकर खड़ी हो जाती है। द्वार एक ही क्षण में बन्द हो जाता है, पर बाहर के संसार की उसी एक झलक के लिए वह कई-कई घण्टे उस वृक्ष के नीचे खड़ी रहती है, जो द्वार के सामने हैं। उस मील भर की चारदीवारी के अन्दर जैसे उसका दम घुटता है। उसे यहाँ आये अभी पूरे दो महीने भी नहीं हुए; पर ऐसा जान पड़ता है दुनिया में न-जाने क्या-क्या परिवर्तन हो गये। पथिकों को राह चलते देखने में भी अब एक विचित्र आनन्द था। बाहर का संसार कभी इतना मोहक न था।

वह कभी-कभी सोचती है–‘उसने सफाई दी होती तो शायद बरी हो जाती, पर क्या मालूम था, चित्त की यह दशा होगी। वे भावनाएँ जो कभी भूलकर मन में न आती थीं, अब किसी रोगी की कुपथ्य-चेष्टाओं की भाँति मन को उद्विग्न करती रहती थीं। झूला झूलने की उसे कभी इच्छा न होती थी; पर आज बार-बार जी चाहता था–रस्सी हो, तो इसी वृक्ष में झूला डालकर झूले। अहाते में ग्वालों की लड़कियाँ भैंसे चराती हुई आम की उबाली हुई गुठलियाँ तोड़-तोड़कर खा रही हैं। सुखदा ने एक बार बचपन मे एक गुठली चखी थी। उस वक़्त वह कसैली लगी थी। फिर उस अनुभव को उसने नहीं दुहराया पर इस समय उन गुठलियों पर उसका मन ललचा रहा है। उनकी कठोरता, उनका सोंधापन, उनकी सुगन्ध उसे कभी इतनी प्रिय न लगी थी। उसका चित्त कुछ अधिक कोमल हो गया है, जैसे पाल में पड़कर कोई फल अधिक रसीला, स्वादिष्ट, मधुर, मुलायम हो गया हो। मुन्ने को वह एक क्षण के लिए भी आँखों से ओझल न होने देती। वही उसके जीवन का आधार था। दिन में कई बार उसके लिए दूध, हलवा आदि पकाती। उसके साथ दौड़ती, खेलती. यहाँ तक कि जब वह बुआ या दादी के लिए रोता, तो खुद रोने लगती थी। अब उसे बार-बार अमर की याद आती है। उसकी गिरफ्तारी और सज़ा का समाचार पाकर उन्होंने जो ख़त लिखा होगा उसे, पढ़ने के लिए उसका मन तड़प-तड़पकर रह जाता है।’

लेडी मेट्रन ने आकर कहा–‘सुखदा देवी, तुम्हारे ससुर तुमसे मिलने आये हैं। तैयार हो जाओ! साहब ने २० मिनट समय दिया है।’

सुखदा ने चटपट मुन्ने का मुँह धोया, नये कपड़े पहनाये, जो कई दिन पहले जेल में सिये थे, और उसे गोद में लिए मेट्रन के साथ बाहर निकली, मानो पहले ही से तैयार बैठी हो।

मुलाक़ात का कमरा जेल के मध्य में था और रास्ता बाहर ही से था। एक महीने के बाद जेल के बाहर निकलकर सुखदा को ऐसा उल्लास हो रहा था, मानो कोई रोगी शय्या से उठा हो। जी चाहता था, सामने के मैदान में खूब उछले और मुन्ना तो चिड़ियों के पीछे दौड़ रहा था।

लाला समरकान्त वहाँ पहले से ही बैठे थे। मुन्ने को देखते ही गद्गद हो गये और गोद में उठाकर बार-बार उसका मुँह चूमने लगे। उसके लिए मिठाई, खिलौने, फल, कपड़ा, पूरा एक गठ्टर लाये थे। सुखदा भी श्रद्धा और भक्ति से पुलकित हो उठी, उनके चरणों पर गिर पड़ी और रोने लगी; इसलिए नहीं कि उस पर कोई विपत्ति पड़ी है, बल्कि रोने में ही आनन्द आ रहा है।

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