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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


समरकान्त ने आशीर्वाद देते हुए पूछा–‘यहाँ तुम्हें जिस बात का कष्ट हो, मेट्रन साहब से कहना। मुझ पर इनकी बड़ी कृपा है। मुन्ना अब शाम को रोज बाहर खेला करेगा। और किसी बात की तकलीफ़ तो नहीं हैं?’

सुखदा ने देखा समरकान्त दुबले हो गये हैं। स्नेह से उसका हृदय छलक उठा। बोली–‘मैं तो यहा बड़े आराम से हूँ पर आप क्यों इतने दुबले हो गये हैं?’

‘यह न पूछो, यह पूछो कि आप जीते कैसे हैं? नैना भी चली गयी, अब घर भूतों का डेरा हो गया है। सुनता हूँ; लाला मनीराम अपने पिता से अलग होकर दूसरा विवाह करने जा रहे हैं। तुम्हारी माताजी तीर्थयात्रा करने चली गयीं। शहर में आन्दोलन चलाया जा रहा है। उस ज़मीन पर दिनभर जनता की भीड़ लगी रहती हैं। कुछ लोग रात को वहाँ सोते हैं। एक दिन तो रातों-रात वहाँ सैकड़ों झोंपड़े खड़े हो गये, लेकिन दूसरे दिन पुलिस ने उन्हें जला दिया और कई चौधरियों को पकड़ लिया।’

सुखदा ने मन-ही-मन हर्षित होकर पूछा–‘यह लोगों ने क्या नादानी की। वहाँ अब कोठियाँ बनने लगी होगीं?’

समरकान्त बोले–‘हाँ, ईटें, चूना, सुर्खी तो जमा की गयी थी; लेकिन एक दिन रातों-रात सारा सामान उड़ गया ईटें बिखेर दी गयीं, चूना मिट्टी में मिला दिया गया। तब से वहाँ किसी को मजूर ही नहीं मिलते। न कोई बेलदार जाता है, न कारीगर। रात को पुलिस का पहरा रहता है। वही बुढ़िया पठानिन आजकल वहाँ सब कुछ कर-धर रही है। ऐसा संगठन कर लिया है कि आश्चर्य होता है।’

जिस काम में वह असफल हुई, उसे वह खप्पट बुढ़िया सुचारू रूप से चला रही है, इस विचार से उसके आत्माभिमान को चोट लगी। बोली–‘वह बुढ़िया तो चल-फिर भी न पाती थी।’

‘हाँ, वही बुढ़िया अच्छे-अच्छे के दाँत खट्टे कर रही है। जनता को तो उसने ऐसा मुट्टी में कर लिया है कि क्या कहूँ। भीतर बैठे हुए कल घुमाने वाले शान्ति बाबू हैं।’

सुखदा ने आज तक उनसे या किसी से, अमरकान्त के विषय में कुछ न पूछा था, पर इस वक़्त वह मन को न रोक सकी–‘हरिद्वार से कोई पत्र आया था?’

लाला समरकान्त की मुद्रा कठोर हो गयी। बोले– ‘हाँ, आया था। उसी शोहदे सलीम का ख़त था। वही उस इलाके का हाकिम है। उसने भी पकड़-धकड़ शुरू कर दी है। उसने ख़ुद लालाजी को गिरफ़्तार किया। यह आपके मित्रों का हाल है। अब आँखें ख़ुली होंगी। मेरा क्या बिगड़ा। आप ठोकरें खा रहे हैं। अब जेल में चक्की पीस रहे होंगे। गये थे ग़रीबों की सेवा करने। यह उसी का उपहार है। मैं तो ऐसे मित्र को गोली मार देता। गिरफ़्तार तक हुए पर मुझे पत्र न लिखा। उसके हिसाब से तो मैं मर गया, मगर बुड्ढा अभी मरने का नाम नहीं लेता, चैन से खाता है और सोता है। किसी के मनाने से नहीं मरा जाता है। ज़रा यह मुटमरदी देखो कि घर में किसी को ख़बर कर न दी। मैं दुश्मन था, नैना तो दुश्मन न थी, शान्तिकुमार तो दुश्मन न थे। यहाँ से कोई जाकर मुक़दमे की पैरवी करती, तो ए.बी. कोई दर्जा तो मिल जाता। नहीं मामूली कैदियों की तरह पड़े हुए हैं। आप रोयेंगे, मेरा क्या बिगड़ता है।’

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