उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा ने पूछा–‘तो आप वहाँ कब जा रहे हैं?’
लालाजी ने तप्परता से कहा–‘आज ही इधर ही से चला जाऊँगा। सुना है, वहाँ जोरों से दमन हो रहा है। अब तो वहाँ का हाल समाचार–पत्रों में भी छपने लगा। कई दिन हुए, मन्नी नाम की कोई स्त्री भी कई आदमियों के साथ गिरफ़्तार हुई है। कुछ इसी तरह की हलचल सारे प्रान्त, बल्कि सारे देश में मची हुई है। सभी जगह पकड़-धकड़ हो रही है।’
बालक कमरे के बाहर निकल गया था। लालाजी ने उसे पुकारा, तो वह सड़क की ओर भागा। समरकान्त भी उसके पीछे दौड़े। बालक ने समझा खेल हो रहा है, और तेज़ दौड़ा। ढाई-तीन साल के बालक की तेज़ी ही क्या, किन्तु समरकान्त जैसे स्थूल आदमी के लिए पूरी कसरत थी। बड़ी मुश्किल से उसे पकड़ा।
एक मिनट के बाद कुछ इस भाव से बोले, जैसे सारगर्भित कथन हो–‘मैं तो सोचता हूँ, जो लोग जाति-हित के लिए अपनी जान होम करने को हरदम तैयार रहते हैं, उनकी बुराइयों पर निगाह ही न डालनी चाहिए।’
सुखदा ने विरोध किया–‘यह न कहिए दादा। ऐसे मनुष्यों का चरित्र आदर्श होना चाहिए; नहीं उनके परोपकार में भी स्वार्थ और वासना की गन्ध आने लगेगी।’
समरकान्त ने तत्त्वज्ञान की बात कही–‘स्वार्थ मैं उसी को कहता हूँ, जिसके मिलने से चित्त को हर्ष और न मिलने से क्षोभ हो। ऐसा प्राणी, जिसे हर्ष और क्षोभ हो ही नहीं मनुष्य नहीं, देवता भी नहीं, जड़ है।’
सुखदा मुस्करायी–‘तो संसार में कोई निस्वार्थ हो ही नहीं सकता?
‘असम्भव। स्वार्थ छोटा हो, तो स्वार्थ है; बड़ा हो, तो उपकार है। मेरा तो विचार है, ईश्वर-भक्ति भी स्वार्थ है।’
मुलाक़ात का समय कब गुज़र चुका था। मेट्रन अब और रिआयत न कर सकती थी। समरकान्त ने बालक को प्यार किया, बहू को आशीर्वाद दिया और बाहर निकले।
बहुत दिनों के बाद आज उन्हें अपने भीतर आनन्द और प्रकाश का अनुभव हुआ, मानो चन्द्रदेव के मुख से मेघों का आवरण हट गया हो।
२
सुखदा अपने कमरे में पहुँची, तो देखा–एक युवती कै़दियों के कपड़े पहने उसके कमरे की सफ़ाई कर रही है। एक चौकीदारिन बीच-बीच में उसे डाँटती जाती है।’
चौकीदारिन ने क़ैदिन की पीठ पर लात मारकर कहा– ‘रांड़ तुझे झाड़ू लगाना भी नहीं आता! गर्द क्यों उड़ाती है? हाथ दबाकर लगा।’
|