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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


क़ैदिन ने झाड़ू फेंक दी और तमतमाते हुए मुख से बोली–‘मैं यहाँ की टहल करने नहीं आयी हूँ।’

‘तो क्या रानी बनकर आयी है?’

‘हाँ, रानी बनकर आयी हूँ। किसी की चाकरी करना मेरा काम नहीं है।’

‘तू झाड़ू लगाएगी कि नहीं?’

‘भलमनसी से कहो, तो मैं तुम्हारे भंगी के घर में भी झाडू लगा दूँगी; लेकिन मार का भय दिखाकर तुम मुझसे राजा के घर में भी झाड़ू नहीं लगवा सकती। इतना समझ रखो।’

‘तू न लगायेगी झाड़ू?’

‘नहीं!’

चौकीदारिन ने क़ैदिन के केश पकड़ लिए और खींचती हुई कमरे से बाहर ले चली। रह-रहकर गालों पर तमाचे भी लगाती जाती थी।

‘चल जेलर साहब के पास।’

‘हाँ, ले चलो, मैं यही उनसे भी कहूँगी। मार-गाली खाने नहीं आयी हूँ।’

सुखदा ने लगातार लिखा–पढ़ी करने पर यह टहलनी दी गयी थी; पर यह काण्ड देखकर सुखदा का मन क्षुब्द हो उठा। इस कमरे में क़दम रखना भी उसे बुरा लग रहा था।

क़ैदिन ने उसकी ओर सजल आँखों से देखकर कहा– ‘तुम गवाह रहना। इस चौकीदारिन ने मुझे कितना मारा है।

सुखदा ने समीप जाकर चौकीदारिन को हटाया और क़ैदिन का हाथ पकड़कर कमरे में ले गयी।

चौकीदारिन ने धमकाकर कहा–‘रोज़ सबेरे यहाँ आ जाया कर। जो काम यह कहें, वह किया कर। नहीं डण्डे पड़ेंगे।’

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