उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
क़ैदिन क्रोध से काँप रही थी– ‘मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ और न यह काम करूँगी। किसी रानी-महारानी की टहल करने नहीं आयी। जेल में सब बराबर हैं!’
सुखदा ने देखा युवती में आत्मसम्मान की कमी नहीं। लज्जित होकर बोली–‘यहाँ कोई रानी-महारानी नहीं है, बहन, मेरा जी अकेले घबराया करता था, इसलिए तुम्हें बुला लिया। हम दोनों यहाँ बहनों की तरह रहेंगी। क्या नाम है तुम्हारा?
युवती की कठोर मुद्रा नर्म पड़ गयी। बोली–‘मेरा नाम मुन्नी है। हरिद्वार से आयी हूँ।’
सुखदा चौंक पड़ी। लाला समरकान्त ने यही नाम तो लिया था। पूछा–‘वहाँ किस अपराध में सज़ा हुई?’
‘अपराध क्या था। सरकार ज़मीन का लगान नहीं कम करती थी। चार आने की छूट हुई। जिन्स का दाम आधा भी नहीं उतरा। हम किसके घर से ला के देते? इस बात पर हमने फरियाद की। बस, सरकार ने सज़ा देना शुरू कर दिया।’
मुन्नी को सुखदा अदालत में कई बार देख चुकी थी। तब से उसकी सूरत बहुत कुछ बदल गयी थी। पूछा– ‘तुम बाबू अमरकान्त को जानती हो? वह भी तो इसी मुआमले में गिरफ़्तार हुए हैं?’
मुन्नी प्रसन्न हो गयी–‘जानती क्यों नहीं, वह तो मेरे ही घर में रहते थे। तुम उन्हें कैसे जानती हो? वही तो हमारे अगुआ हैं।’
सुखदा ने कहा–‘मैं भी काशी की रहने वाली हूँ। उसी मुहल्ले में उनका भी घर है। तुम क्या ब्राह्मणी हो?’
‘हूँ तो ठकुराइन, पर अब कुछ नहीं हूँ। जात-पाँत, पूत-भतार सबको रो बैठी।’
‘अमर बाबू कभी अपने घर की बातचीत नहीं करते थे?’
‘कभी नहीं। न कभी आना, न जाना; न चिट्ठी, न पत्तर।’
सुखदा ने कनखियों से देखकर कहा–‘मगर वह तो बड़े रसिक आदमी हैं। वहाँ गाँव में किसी पर डोरे नहीं डाले?’
मुन्नी ने जीभ दातों तले दबायी–‘कभी नहीं बहूजी, कभी नहीं। मैंने तो उन्हें कभी किसी मेहरिया की ओर ताकते या हँसते नहीं देखा। न जाने किस बात पर घर वाली से रूठ गये। तुम तो जानती होगी?’
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