उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा ने मुस्कराते हुए कहा–‘रूठ क्या गये, स्त्री को छोड़ दिया। छिपकर घर से भाग गये। बेचारी औरत घर में बैठी हुई है। तुमको मालूम न होगा उन्होंने ज़रूर कहीं-न-कहीं दिल लगाया होगा।’
मुन्नी ने दाहिने हाथ को साँप के फन की भाँति हिलाते हुए कहा–‘ऐसी बात होती, तो गाँव में छिपी न रहती बहूजी। मैं तो रोज ही दो-चार बेर उनके पास जाती थी। कभी सिर ऊपर न उठाते थे। फिर उस दिहात में ऐसी थी ही कौन, जिस पर उनका मन चलता। न कोई पढ़ी-लिखी, न गुन, न सहूर।’
सुखदा ने फिर नब्ज टटोली–‘मर्द गुन-सहूर, पढ़ना-लिखना नहीं देखते। वह तो रूप-रंग देखते हैं और वह तुम्हें भगवान् ने दिया ही है। जवान भी हो।’
मुन्नी ने मुँह फेरकर कहा–‘तुम तो गाली देती हो बहूजी। मेरी ओर भला वह क्या देखते, जो उनके पाँव की जूतियों के बराबर भी नहीं; लेकिन तुम कौन हो बहूजी, तुम यहाँ कैसे आयी?’
‘जैसे तुम आयी, वैसे ही मैं भी आयी।’
‘तो यहाँ भी वही हलचल है?’
‘हाँ, कुछ उसी तरह की है।’
मुन्नी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ऐसी विदुषी देवियाँ भी जेल में भेजी गयी हैं। भला इन्हें किस बात का दुःख होगा?
उसने डरते-डरते पूछा–‘तुम्हारे स्वामी जी सज़ा पा गये होंगे?’
‘हाँ, तभी तो मैं आयी।’
मुन्नी ने छत की ओर देखकर आशीर्वाद दिया– ‘भगवान तुम्हारा मनोरथ पूरा करें बहूजी। गद्दी-मसनद लगाने वाली रानियाँ जब तपस्या करने लगीं, तो भगवान वरदान भी जल्दी देंगे। कितने दिन की सज़ा हुई है? मुझे तो छः महीने की है।’
सुखदा ने अपनी सज़ा की मीयाद बताकर कहा– ‘तुम्हारे ज़िले में बड़ी सख़्तियाँ हो रही होंगी? तुम्हारा क्या विचार है, लोग सख़्ती से दब जायेंगे?’
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