उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मुन्नी ने मानो क्षमा याचना की– ‘मेरे सामने लोग तो यही कहते थे कि चाहे फाँसी पर चढ़ जायें, पर आधे से बेसी लगान न देंगे; लेकिन अपने दिल में सोचो, जब बैल-बधिया छीने जाने लगेंगे, सिपाही घरों में घुसेंगे, मरदों पर डण्डों और गोलियों की मार पड़ेगी, तो आदमी कहाँ तक सहेगा? मुझे पकड़ने के लिए तो पूरी फ़ौज गयी थी। पचास आदमियों से कम न होंगे। गोली चलते-चलते बची। हज़ारों आदमी जमा हो गये। कितना समझाती थी–भाइयों, अपने-अपने घर जाओ, मुझे जाने दो; लेकिन कौन सुनता है। आख़िर जब मैंने कसम दिलाई, तो लोग लौटे; नहीं, उसी दिन दस-पाँच की जान जाती। न जाने भगवान् कहाँ सोए हैं कि इतना अन्याय देखते हैं और नहीं बोलते। साल में छः महीने एक जून खाकर बेचारे दिन काटते हैं, चीथड़े पहनते हैं, लेकिन सरकार को देखो, तो उन्हीं की गर्दन पर सवार!
हाकिमों को तो अपने लिए बंगला चाहिए, मोटर चाहिए, हर नियामत खाने को चाहिए, सैर-तमाशा चाहिए, पर ग़रीबों का इतना सुख भी नहीं देखा जाता! जिसे देखो, ग़रीबों ही का रक्त चूसने को तैयार है। हम जमा करने को नहीं माँगते, न हमें भोग-विलास की इच्छा है, लेकिन पेट को रोटी और तन ढाँकने को कपड़ा तो चाहिए। साल-भर खाने-पहनने को छोड़ दो, गृहस्थी का जो कुछ खरच पड़े वह दे दो। बाकी जितना बचे, उठा ले जाओ। मुदा ग़रीबों की कौन सुनता है?’
सुखदा ने देखा, इस गँवारिन के हृदय में कितनी सहानुभूति, कितनी दया, कितनी जाग्रति भरी हुई है। अमर के त्याग और सेवा की उसने जिन शब्दों में सराहना की, उसने जैसे सुखदा के अन्तःकरण की सारी मलिनताओं को धोकर निर्मल कर दिया, जैसे उसके मन में प्रकाश आ गया हो और उसकी सारी शंकाएँ और चिन्ताएँ अन्धकार की भाँति मिट गयी हों। अमरकान्त का कल्पनाचित्र उसकी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ–‘क़ैदियों का जाँघिया और कन्टोप पहने, बड़े-बड़े बाल बढ़ाये, मुख मलिन, क़ैदियों के बीच में चक्की पीसता हुआ। वह भयभीत होकर काँप उठी। उसका हृदय कभी इतना कोमल न था।’
मेट्रन ने आकर कहा–‘अब तो आपको नौकरानी मिल गयी। इससे खूब काम लो।’
सुखदा धीमे स्वर में बोली–‘मुझे अब नौकरानी की इच्छा नहीं है मेम साहब, मैं यहाँ रहना भी नहीं चाहती। आप मुझे मामूली क़ैदियों में भेज दीजिए।’
मेट्रन छोटे क़द की ऐंग्लो-इण्डियन महिला थी। चौड़ा मुँह, छोटी-छोटी आँखें तराशे हुए बाल, घुटनियों के ऊपर स्कर्ट पहने हुए। विस्मय से बोली–‘यह क्या कहती हो सुखदा देवी! नौकरानी मिल गया और जिस चीज़ का तकलीफ़ हो हमसे कहो, हम जेलर साहब से कहेगा।’
सुखदा ने नम्रता से कहा–‘आपकी इस कृपा के लिए मैं आपको धन्यावाद देती हूँ। मैं अब किसी तरह की रिआयत नहीं चाहती हूँ कि मुझे मामूली क़ैदियों की तरह रखा जाय।’
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