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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘नीचे औरतों के साथ रहना पड़ेगा। खाना भी वही मिलेगा।’

‘यही तो मैं चाहती हूँ।’

‘काम भी वही करना पड़ेगा। शायद चक्की में दे दे।’

‘कोई हरज नहीं।’

‘घर के आदमियों से तीसरे महीने मुलाकात हो सकेगी।’

‘मालूम है।’

मेट्रन की लाला समरकान्त ने खूब पूजा की थी। इस शिकार के हाथ से निकल जाने का दुःख हो रहा था। कुछ देर तक समझाती रही। जब सुखदा ने अपनी राय न बदली, तो पछताती हुई चली गयी।

मुन्नी ने पूछा–‘मेम साहब क्या कहती थी?’

सुखदा ने मुन्नी को स्नेह-भरी आँखों से देखा–‘अब मैं तुम्हारे साथ रहूँगी मुन्नी।’

मुन्नी ने छाती पर हाथ रखकर कहा–‘यह क्या करती हो बहू? वहाँ तुमसे न रहा जायेगा।’

सुखदा ने प्रसन्न मुख से कहा–‘जहाँ तुम रह सकती हो, वहाँ मैं भी रह सकती हूँ।’

एक घण्टे के बाद जब सुखदा यहाँ से मुन्नी के साथ चली, तो उसका मन आशा और भय से काँप रहा था, जैसे कोई बालक परीक्षा में सफल होकर अगली कक्षा में गया हो।

पुलिस ने उस पहाड़ी इलाक़े का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घण्टे घूमते रहते थे। पाँच आदमियों से ज़्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से निकल न सकता था। पुलिस को इत्तला दिए बगैर घर में मेहमान को ठहराने की भी मनाही थी। फ़ौजी क़ानून जारी कर दिया गया था। कितने ही घर जला दिये गये थे और उनके रहने वाले हबूड़ों की भाँति वृक्षों के नीचे बाल-बच्चों को लिए पड़े थे। पाठशाला में आग लगा दी गयी थी और उसकी आधी-आधी काली दीवारें मानो केश खोले मातम कर रही थीं। स्वामी आत्मानन्द बाँस की छतरी लगाये अब भी वहाँ डटे हुए थे ज़रा-सा मौक़ा पाते ही इधर-उधर से दस-बीस आदमी आकर जमा हो जाते; पर सवारों को आते देखा और ग़ायब।

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