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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सहसा लाला समरकान्त एक गट्ठर पीठ पर लादे मदरसे के सामने आकर खड़े हो गये। स्वामी ने दौड़कर उनका बिस्तर ले लिया और खाट की फ़िक्र में दौड़े। गाँवभर में बिजली की तरह ख़बर दौड़ गयी–भैया के बाप आये हैं। हैं तो वृद्ध; मगर अभी टनमन हैं। सेठ-साहूकार से लगते हैं। एक क्षण में बहुत-से आदमियों ने आकर घेर लिया। किसी के सिर में पट्टी बँधी थी, किसी के हाथ में। कई लँगड़ा रहे थे। शाम हो गयी और आज कोई विशेष खटका न देखकर और सारे इलाक़े में डण्डे के बल से शान्ति स्थापित करके पुलिस विश्राम कर रही थी। बेचारे रात-दिन दौड़ते-दौड़ते अधमरे हो गये थे।

गूदड़ ने लाठी टेकते हुए आकर समरकान्त के चरण छुए और बोले–‘अमर भैया का समाचार तो आपको मिला होगा। आजकल तो पुलिस का धावा है। हाकिम कहता है–बारह आने लेंगे, हम कहते हैं हमारे पास है ही नहीं, दे कहाँ से? बहुत-से लोग तो गाँव छोड़कर भाग गये। जो हैं, उनकी दशा आप देख ही रहे हैं। मुन्नी बहु को पकड़कर जेहल में डाल दिया। आप ऐसे समय में आये कि आपकी कुछ खातिर भी नहीं कर सकते।’

समरकान्त मदरसे के चबूतरे पर बैठ गये और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे–‘इन ग़रीबों की क्या सहायता करें? क्रोध की एक ज्वाला-सी उठकर रोम-रोम में व्याप्त हो गयी, पूछा–यहाँ कोई अफ़सर भी तो होगा?’

गूदड़ ने कहा–‘हाँ, अफसर तो एक नहीं, पचास हैं जी। सबसे बड़ा अफसर तो वही मियाँजी है, जो अमर भैया के दोस्त हैं।

‘तुम लोगों ने उस लफंगे से पूछा नहीं–मारपीट क्यों करते हो, क्या यह भी क़ानून है?’

गूदड़ ने सलोनी की मड़ैया देखकर कहा–‘भैया, कहते तो सब कुछ हैं; जब कोई सुने! सलीम साहब ने ख़ुद अपने हाथों से हण्टर मारे। उनकी बेदर्दी देखकर पुलिस वाले भी दाँतों उँगली दबाते थे। सलोनी मेरी भावज लगती है। उसने उनके मुँह पर थूक दिया था। यह उसे न करना चाहिए था। पागलपन था और क्या। मियाँ साहब आग हो गये और बुढ़िया को इतने हण्टर जमाए कि भगवान् ही बचाये तो बचे। मुदा वह भी है अपनी धुन की पक्की, हरेक हण्टर पर गाली देती थी। जब बेदम होकर गिर पड़ी, तब जाकर उसका मुँह बन्द हुआ। भैया उसे काकी-काका करते रहते थे। कहीं से आवें, सबसे पहले काकी के पास जाते थे। उठने लायक होती तो ज़रूर-से-ज़रूर आती।’

आत्मानन्द ने चिढ़कर कहा–‘अर तो अब रहने भी दो, क्या सब आज ही कह डालोगे। पानी मँगवाओ, आप हाथ-मुँह धोयें; ज़रा आराम करने दो, थके-माँदे आ रहे हैं–वह देखो सलोनी को ख़बर मिल गयी, लाठी टेकती चली आ रही है!’

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