उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलोनी के पास आकर कहा–‘कहाँ हो देवरजी, सावन में आते तो तुम्हारे साथ झूला-झूलती, चले हो कातिक में! जिसका ऐसा सरदार और ऐसा बेटा, उसे किसका डर और किसी चिन्ता। तुम्हें देखकर सारा दुःख भूल गयी देवरजी!’
समरकान्त ने देखा–‘सलोनी की देह सूज उठी है और साड़ी पर लहू के दाग़ सूखकर कत्थई हो गये हैं। मुँह सूजा हुआ है। इस मुरदे पर इतना क्रोध! उस पर विद्वान बनता है! उनकी आँखों में ख़ून उतर आया। हिंसा-भावना मन में प्रचण्ड हो उठी। निर्बल क्रोध और चाहे कुछ न कर सके, भगवान् की ख़बर ज़रूर लेता है। तुम अन्तर्यामी हो, सर्वशक्तिमान हो, दीनों के रक्षक हो और तुम्हारी आँखों के सामने यह अँधेर! इस जगत् का नियन्ता कोई नहीं है। कोई दयामय भगवान् दृष्टि का कर्ता होता, तो यह अत्याचार न होता! अच्छे सर्वशक्तिमान! हो! क्यों नरपिशाचों के हृदय में नहीं बैठ जाते, या वहाँ तुम्हारी पहुँच नहीं है! कहते हैं, यह सब भगवान् की लीला है। अच्छी लीला है! अगर तुम्हें भी ऐसी ही लीला में आनन्द मिलता है, तो तुम पशुओं से भी गये-बीते हो; अगर तुम्हें इस व्यापार की ख़बर नहीं है, तो फिर सर्वव्यापी क्यों कहलाते हो?’
समरकान्त धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे। धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया था। भगवद्गीता का नित्य पाठ किया करते थे; पर इस समय वह सारा धर्म-ज्ञान उन्हें पाखण्ड सा प्रतीत हुआ।
वह उसी तरह खड़े हुए और पूछा–सलीम तो सदर में होगा?’
आत्मानन्द ने कहा–‘आजकल तो यहीं पड़ाव है। डाकबँगले में ठहरे हुए हैं।’
‘मैं उनसे मिलूँगा।’
‘अभी वह क्रोध में हैं, आप मिलकर क्या कीजिएयेगा। आपको भी अपशब्द कह बैठेंगे।’
‘यही देखने तो जाता हूँ कि मनुष्यों की पशुता किस सीमा तक जा सकती है।
‘तो चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूँ।'
गूदड़ बोल उठे–‘नहीं, नहीं, तुम न जइयों स्वामीजी, भैया, यह हैं तो संन्यासी और दया के अवतार, मुदा क्रोध में भी दुर्वासा मुनी से कम नहीं हैं। जब हाकिम साहब सलोनी को मार रहे थे, तब चार आदमी इन्हें पकड़े हुए थे, नहीं तो उस बखत मियाँ का ख़ून चूस लेते, चाहे पीछे से फाँसी हो जाती। गाँव भर की मरहम-पट्टी इन्हीं के सुपुर्द है।’
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