उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलोनी ने समरकान्त का हाथ पकड़कर कहा–‘मैं चलूँगी तुम्हारे साथ देवरजी। उसे दिखा दूँगी कि बुढ़िया तेरी छाती पर मूँग दलने को बैठी हुई है। तू मारनहार है, तो कोई तुझसे बड़ा राखनहार भी है। जब तक उसका हुक्म न होगा, तू क्या मार सकेगा!’
भगवान् में उसकी यह अपार निष्ठा देखकर समरकान्त की आँखें सजल हो गयीं। सोचा–मुझसे तो ये मूर्ख ही अच्छे जो इतनी पीड़ा और दुःख सहकर भी तुम्हारा ही नाम रटते हैं। बोले–‘नहीं भाभी, मुझे अकेले जाने दो। मैं अभी उनसे दो-दो बातें करके लौट आता हूँ।
सलोनी लाठी सँभाल रही थी कि समरकान्त चल पड़े। तेजा और दुरज्न आगे-आगे डाकबँगले का रास्ता दिखाते हुए चले।
तेजा ने पूछा–‘दादा, जब अमर भैया छोटे-से थे, तो बड़े शैतान थे न?’
समरकान्त ने इस प्रश्न का आशय न समझकर कहा– ‘नहीं तो, वह तो लड़कपन ही से सुशील था।’
दुर्जन ताली बजाकर बोला–‘अब कहो तेजू, हारे कि नहीं? दादा, हमारा इनका यह झगड़ा है कि यह कहते हैं, जो लड़के बचपन में बड़े शैतान होते हैं, वही बड़े होकर सुशील हो जाते हैं; और मैं कहता हूँ, जो लड़कपन में सुशील होते हैं, वही बड़े होकर भी सुशील रहते हैं। जो बात आदमी में है नहीं वह बीच में कहाँ से आ जायेगी?’
तेजा ने शंका की–‘लड़के में तो अक्कल भी नहीं होती, जवान होने पर कहाँ से आ जाती? अख़ुवे में तो खाली दो दल होते हैं, फिर उनमें डाल-पात कहाँ से आ जाते हैं? यह कोई बात नहीं। मैं ऐसी कितने ही नामी आदमियों के उदाहरण दे सकता हूं, जो बचपन में बड़े पाजी थे; पर आगे चलकर महात्मा हो गये।’
समरकान्त को बालकों के इस तर्क में बड़ा आनन्द आया। मध्यस्थ बनकर दोनों ओर कुछ सहारा देते जाते थे। रास्ते में एक जगह कीचड़ भरा हआ था। सरमकान्त के जूते कीचड़ में फँसकर पाँव से निकल गये। इस पर बड़ी हँसी हुई।
सामने से पाँच सवार आते दिखाई दिए। तेजा ने एक पत्थर उठाकर एक सवार पर निशाना मारा। उसकी पगड़ी जमीन पर गिर पड़ी। वह तो घोड़े से उतरकर पगड़ी उठाने लगा, बाक़ी चारों घोड़े दौड़ाते समरकान्त के पास आ पहुँचे।
तेजा दौड़कर एक पेड़ पर चढ़ गया। दो सवार उसके पीछे दौड़े और नीचे से गालियाँ देने लगे। बाक़ी तीनों सवारों ने समरकान्त को घेर लिया और एक ने हण्टर निकालकर ऊपर उठाया ही था कि एकाएक चौंक पड़ा और बोला–‘अरे! आप हैं सेठजी! आप यहाँ कहाँ?’
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