उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सेठजी ने सलीम को पहचानकर कहा–‘हाँ, हाँ, चला दो हण्टर, रुक क्यों गये? अपनी कारगुजारी दिखाने का ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा? हाकिम होकर अगर ग़रीबों पर हण्टर न चलाया, तो हाकिमी किस काम की?’
सलीम लज्जित हो गया–‘आप इन लौंडों की शरारत देख रहे हैं, फिर भी मुझी को क़सूरवार ठहराते हैं। उसने ऐसा पत्थर मारा कि इन दारोग़ाजी की पगड़ी गिर गयी। ख़ैरियत हुई की आँख में न लगा।’
समरकान्त आवेश में औचित्य को भूलकर बोले– ‘ठीक तो है, जब उस लौंडे ने पत्थर चलाया, जो अभी नादान है, तो फिर हमारे हाकिम साहब जो विद्या के सागर हैं , क्या हण्टर भी न चलायें। कह दो दोनों सवार पेड़ पर चढ़ जायें, लौंडे को ढकेल दें, नीचे गिर पड़े। मर जायेगा, तो क्या हुआ, हाकिम से बेअदबी करने की सज़ा तो पा जायेगा।’
सलीम ने सफ़ाई दी–‘आप तो अभी आये हैं, आपको क्या ख़बर यहाँ के लोग कितने मुफ़सिद हैं? एक बुढ़िया ने मेरे मुँह पर थूक दिया, मैंने ज़ब्त किया, वरना सारा गाँव जेल में होता।’
समरकान्त यह बम गोला खाकर भी परास्त न हुए– ‘तुम्हारे ज़ब्त की बानगी देखे आ रहे हूँ बेटा, अब मुँह न ख़ुलवाओ। वह अगर ज़ाहिल बेसमझ औरत थी, तो तुम्हीं ने आलिम-फ़ाज़िल होकर कौन-सी शराफ़त की? उसकी सारी देह लहू-लुहान हो रही है। शायद बचेगी भी नहीं। कुछ याद है कितने आदमियों के अंग-भंग हुए? सब तुम्हारे नाम की दुआयें दे रहे हैं। अगर उनसे रुपये न वसूल होते थे, तो बेदख़ल कर सकते थे, उनकी फ़सल कुर्क़ कर सकते थे। मारपीट का क़ानून कहाँ से निकाला?’
‘बेदख़ली से क्या नतीज़ा, ज़मीन का यहाँ कौन ख़रीददार है? आख़िर सरकारी रक़म कैसे वसूल की जाये?’
‘तो मार डालो सारे गाँव को देखो कितने रुपये वसूल होते हैं। तुमसे मुझे ऐसी आशा न थी; मगर शायद हुकूमत में कुछ नशा होता है।’
‘आपने अभी इन लोगों की बदमाशी नहीं देखी। मेरे साथ आइए, तो मैं सारी दास्तान सुनाऊँ। आप इस वक़्त आ कहाँ से रहे हैं?’
समरकान्त ने अपने लखनऊ आने और सुखदा से मिलने का हाल कहा। फिर मतलब की बात छेड़ी– ‘अमर तो यहीं होगा? सुना, तीसरे दरजे में रखा गया है।’
अँधेरा ज़्यादा हो गया था। कुछ ठण्ड भी पड़ने लगी थी। चार सवार तो गाँव की तरफ़ चले गये, सलीम घोड़े की रास थामे हुए पाँव-पाँव समरकान्त के साथ डाकबँगले चला।
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