उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘पचास देते हो?’
‘एक कौड़ी नहीं।’
काले खाँ ने कड़े उठाकर कमर में रख लिए और दुकान के नीचे उतर गया। पर एक क्षण में फिर लौटकर बोला–‘अच्छा तीस रुपये ही दे दो। अल्लाह जानता है, पगड़ीवाले आधा ले लेंगे।
अमरकान्त ने उसे धक्का देकर कहा–‘निकल जा यहाँ से सुअर, मुझे क्यों हैरान कर रहा है।’
काले खाँ चला गया, तो अमर ने उस जगह को झाडू से साफ़ कराया और अगरबत्ती जलाकर रख दी। उसे अभी तक शराब की दुर्गन्ध आ रही थी। आज उसे अपने पिता से जितनी अभक्ति हुई, उतनी कभी न हुई थी। उस घर की वायु तक उसे दूषित लगने लगी। पिता के हथकण्डों से वह कुछ-कुछ परिचित तो था; पर उनका इतना पतन हो गया है, इसका प्रमाण आज ही मिला। उसने मन में निश्चय किया; आज पिता से इस विषय में खूब अच्छी तरह शास्त्रार्थ करेगा। उसने खड़े होकर अधीर नेत्रों से सड़क की ओर देखा। लालाजी का पता न था। उसके मन में आया, दुकान बन्द करके चला जाय और जब पिताजी आ जाएँ, तो साफ़-साफ़ कह दे, मुझसे यह व्यापार न होगा। वह दुकान बन्द करने ही जा रहा था कि एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आकर सामने खड़ी हो गयी और बोली–‘लाला नहीं हैं क्या बेटा?’
बुढ़िया के बाल सन हो गये थे। देह की हड्डियाँ तक सूख गयी थीं। जीवन-यात्रा के उस स्थान पर पहुँच गयी थी, जहाँ से उसका आकार मात्र दिखाई देता था, मानो एक-दो क्षण में वह अदृश्य हो जाएगी।
अमरकान्त के जी में पहले तो आया कि कह दे, लाला नहीं हैं, वह आये तब आना; लेकिन बुढ़िया के पिचके हुए मुख पर ऐसी करुण याचना, ऐसी शून्य निराशा छाई हुई थी कि उसे उस पर दया गयी। बोली– ‘लालाजी से क्या काम है? वह तो कहीं गये हुए हैं।’
बुढ़िया ने निराश होकर कहा–‘तो कोई हरज नहीं बेटा, मैं फिर आ जाऊँगी।’
अमरकान्त ने नम्रता से कहा–‘अब आते ही होंगे, माता। ऊपर चली आओ।’
दुकान की कुर्सी ऊँची थी। तीन सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं। बुढ़िया ने पहली पट्टी पर पाँव रखा; पर दूसरा पाँव ऊपर न रख सकी। पैरों में इतनी शक्ति न थी। अमर ने नीचे आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे सहारा देकर दुकान पर चढ़ा दिया। बुढ़िया ने आशीर्वाद देते हुए कहा–‘तुम्हारी बड़ी उम्र हो बेटा, मैं यही डरती हूँ कि लाला देर में आयें और अँधेरा हो गया, तो मैं घर कैसे पहुँचूँगी? रात को कुछ नहीं सूझता बेटा।’
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