उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘तुम्हारा घर कहाँ है माता?’
बुढ़िया ने ज्योतिहीन आँखों से उसके मुख की ओर देखकर कहा–‘गोबर्धन की सराय पर रहती हूँ बेटा।’
‘तुम्हारे और कोई नहीं है?’
‘सब हैं भैया, बेटे हैं, पोते हैं, बहुएँ हैं, पोतो की बहुएँ हैं; पर जब अपना कोई नहीं, तो किस काम का। नहीं लेते मेरी सुध, न सही। तो अपने। मर जाऊँगी, तो मिट्टी तो ठिकाने लगा देंगे।’
‘तो वह लोग तुम्हें कुछ देते नहीं?’
बुढ़िया ने स्नेह मिले हुए गर्व से कहा–‘मैं किसी के आसरे–भरोसे नहीं हूं बेटा; जीते रहें मेरे लाला समरकान्त, वह मेरी परवरिश करते हैं। तब तो तुम बहुत छोटे थे भैया, जब मेरा सरदार लाला का चपरासी था। इसी कमाई में ख़ुदा ने कुछ ऐसी बरकत दी कि घर-द्वार बना, बाल-बच्चों का ब्याह-गौना हुआ, चार पैसे हाथ में हुए। थे तो पाँच रुपये के प्यादे, पर कभी किसी से दबे नहीं, किसी के सामने गरदन नहीं झुकाई। जहाँ लाला का पसीना गिरे, वहाँ अपना ख़ून बहाने को तैयार रहते थे। आधी रात, पिछली रात, जब बुलाया, हाज़िर हो गये। थे तो अदना से नौकर, मुदा लाला ने कभी ‘तुम’ कहकर नहीं पुकारा। बराबर खाँ साहब कहते थे। बड़े-बड़े सेठिये कहते थे खाँ-साहब, हम इससे दूनी तलब देंगे, हमारे पास आ जाओ; पर सबको यही जवाब देते कि जिसके हो गये, उसके हो गये। जब तक वह दुत्कार न देगा, उसका दामन न छोड़ेंगे। लाला ने भी ऐसा निभाया कि क्या कोई निभाएगा। उन्हें मरे आज बीसवां साल है, वही तलब मुझे देते जाते हैं। लड़के पराए हो गये, पोते बात नहीं पूछते; पर अल्लाह मेरे लाला को सलामत रखें, मुझे किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत नहीं आयी।’
अमरकान्त ने अपने पिता को स्वार्थी, लोभी, भावहीन समझ रखा था। आज उसे मालूम हुआ, उनमें दया और वात्सल्य भी है। गर्व से उनका हृदय पुलकित हो उठा। बोला–‘तो तुम्हें पाँच रुपये मिलते हैं?’
‘हाँ, बेटा, पाँच रुपये महीना देते जाते हैं।’
‘तो मैं तुम्हें रुपये दिए देता हूँ, लेती जाओ। लाला शायद देर में आयें।’
वृद्धा ने कानों पर हाथ रखकर कहा–‘नहीं बेटा, उन्हें आ जाने दो। लठियां टेकती चली जाऊँगी। अब तो यही आँख रह गयी है।’
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