उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘इसमें हरज क्या है, मैं उनसे कह दूंगा, पठानिन रुपये ले गयी। अँधेरे में कहीं गिर-गिरा पड़ोगी।’
‘नहीं बेटा, ऐसा काम नहीं करती, जिसमें पीछे से कोई बात पैदा हो। फिर आ जाऊँगी।’
‘नहीं, मैं बिना रुपये लिए न जाने दूँगा।’
बुढ़िया ने डरते-डरते कहा–‘तो लाओ दे दो बेटा, मेरा नाम टाँक लेना पठानिन।’
अमरकान्त ने रुपये दे दिए। बुढ़िया ने काँपते हुए हाथों से रुपये लेकर गिरह बाँधे और दुआएँ देती हुई, धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतरी; मगर पचास कदम भी न गयी होगी कि पीछे से अमरकान्त एक इक्का लिए हुआ आया और बोला–‘बूढ़ी माता, आकर इक्के पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें पहुँचा दूँ।’
बुढ़िया ने आश्चर्यचकित नेत्रों से देखकर कहा–‘अरे नहीं बेटा! तुम मुझे पहुँचाने कहाँ जाओगे! मैं टेकती हुई चली जाऊँगी। अल्लाह तुम्हें सलामत रखे।’
अमरकान्त इक्का ला चुका था। उसने बुढ़िया को गोद में उठाया और इक्के पर बैठा कर पूछा–‘कहाँ चलूँ?’
बुढ़िया ने इक्के के डंडों को मजबूती से पकड़कर कहा– ‘गोबर्धन की सराय चलो बेटा, अल्लाह तुम्हारी उम्र दराज़ करे। मेरा बच्चा इस बुढ़िया के लिए इतना हैरान हो रहा है। इत्ती दूर से दौड़ा आया। पढ़ने जाते हो न बेटा, अल्लाह तुम्हें बड़ा दरजा दे।’
पन्द्रह-बीस मिनट में इक्का गोबर्धन की सराय पहुँच गया। सड़क के दाहिने हाथ एक गली थी। वहीं बुढ़िया ने इक्का रुकवा दिया और उतर पड़ी। इक्का आगे न जा सकता था। मालूम पड़ता था, अँधेरे ने मुँह पर तारकोल पोत लिया है।
अमरकान्त ने इक्के को लौटाने के लिए कहा, तो बुढ़िया बोली–‘नहीं मेरे लाला इत्ती दूर आये हो, तो पलभर मेरे घर भी बैठे लो, तुमने मेरा कलेजा ठंडा कर दिया।’
गली में बड़ी दुर्गन्ध थी। गन्दे पानी के नाले दोनों तरफ़ बह रहे थे। घर प्रायः सभी कच्चे थे। ग़रीबों का मुहल्ला था। शहरों के बाज़ारों और गलियों में कितना अन्तर है! एक फूल है–सुन्दर, स्वच्छ, सुगन्धमय; दूसरी जड़ है–कीचड़ और दुर्गन्ध से भरी, टेढ़ी-मेढ़ी; लेकिन क्या फूल को मालूम है कि उसकी हस्ती जड़ से है।
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