उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
बुढ़िया ने एक मकान के सामने खड़े होकर धीरे से पुकारा– ‘सकीना! अन्दर से आवाज़ आयी–आती हूँ अम्माँ; इतनी देर कहाँ लगाई?
एक क्षण में सामने का द्वार खुला और एक बालिका हाथ में मट्टी के तेल की एक कुप्पी लिए द्वार पर खड़ी हो गयी। अमरकान्त बुढ़िया के पीछे खड़ा था, उस पर बालिका की निगाह न पड़ी; लेकिन बुढ़िया आगे बढ़ी, तो सकीना ने अमर को देखा। तुरन्त ओढ़नी में मुँह छिपाती हुई पीछे हो गयी और धीरे से पूछा– ‘यह कौन हैं अम्माँ?’
बुढ़िया ने कोने में अपनी लकड़ी रख दी और बोली– ‘लाला का लड़का है, मुझे पहुँचाने आया है। ऐसा नेक और शरीफ़ लड़का तो मैंने देखा ही नहीं।’
उसने अब तक का सारा वृत्तान्त अपने आशीर्वादों से भरी भाषा में कह सुनाया और बोली–‘आँगने में खाट डाल दे बेटी, ज़रा बुला लूँ। थक गया होगा।’
सकीना ने एक टूटी-सी खाट आँगन में डाल दी और उस पर एक सड़ी-सी चादर बिछाती हुई बोली–‘इस खटोले पर क्या बिठाओगी अम्माँ, मुझे तो शर्म आती है।
बुढ़िया ने ज़रा कड़ी आँखों से देखकर कहा–‘शर्म की क्या बात है इसमें? हमारा हाल क्या इनसे छिपा है?’
उसने बाहर जाकर अमरकान्त को बुलाया। द्वार पर परदे की दीवार में था। उस पर एक टाट का फटा-पुराना परदा पड़ा हुआ था। द्वार के अन्दर कदम रखते ही एक आँगन था, जिसमें मुश्किल से दो खटोले पड़ सकते थे। सामने खपरैल का एक नीचा सायबान था और सायबान के पीछे एक कोठरी थी; जो इस वक़्त अँधेरी पड़ी हुई थी। सायबान में एक किनारे चूल्हा बना हुआ था और टीन और मिट्टी के दो-चार बरतन; एक घड़ा और एक मटका रखे हुए थे। चूल्हे में आग जल रही थी और तवा रखा हुआ था।’
अमर ने खाट पर बैठते हुए कहा–‘यह घर तो बहुत छोटा है। इसमें गुज़र कैसे होती है?’
बुढ़िया खाट के पास ज़मीन पर बैठ गयी और बोली– ‘बेटा, अब तो दो ही आदमी हैं, नहीं, इसी घर में एक पूरा कुनबा रहता था। मेरे दो बेटे, दो बहुएँ, उनके बच्चे, सब इसी घर में रहते थे। इसी में सबों के शादी-ब्याह हुए और इसी में सब मर भी गये। उस वक़्त यह ऐसा गुलज़ार लगता था कि तुमसे क्या कहूँ। अब मैं हूँ और मेरी यह पोती है। और सबको अल्लाह ने बुला लिया। पकाते हैं, खाते हैं और पड़े रहते हैं। तुम्हारे पठान के मरते ही घर में जैसे झाड़ू फिर गयी। अब तो अल्लाह से यही दुआ है कि जीते-जी यह किसी भले आदमी के पाले पड़ जाए, तब अल्लाह से कहूँगी कि अब मुझे उठा लो। तुम्हारे यार-दोस्त तो बहुत होंगे बेटा, अगर शर्म की बात न समझो, तो किसी से जिक्र करना। कौन जाने तुम्हारे ही हीले से कहीं बातचीत ठीक हो जाए।’
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