लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सकीना कुरता-पाजामा पहने, ओढ़नी से माथा छिपाए सायबान में खड़ी थी। बुढ़िया ने ज्योंही उसकी शादी की चर्चा छेड़ी, वह चूल्हे के पास जा बैठी और आटे को अँगुलियों से गोदने लगी। वह दिल में झुँझला रही थी कि अम्माँ क्यों इनसे मेरा दुखड़ा ले बैठीं। किससे कौन बात कहनी चाहिए, कौन बात नहीं, इसका इन्हें ज़रा भी लिहाज नहीं। जो ऐरा-गैरा आ गया, उसी से शादी का पचड़ा गाने लगीं। और सब बातें गयीं, बस एक शादी रह गयी।

उसे क्या मालूम कि अपनी सन्तान को विवाहित देखना बुढ़ापे की सबसे बड़ी अभिलाषा है।

अमरकान्त ने मन में मुसलमान मित्रों का सिंवाहलोकन करते हुए कहा–‘मेरे मुसलमान दोस्त ज़्यादा तो नहीं हैं; लेकिन जो दो-एक हैं, उनसे मैं ज़िक्र करूँगा।’

वृद्धा ने चिन्तित भाव से कहा–‘वह लोग धनी होंगे?’

‘हाँ, सभी खुशहाल हैं।’

‘तो भला धनी लोग ग़रीबों की बात क्यों पूछेंगे। हालाँकि हमारे नबी का हुक्म है कि शादी-ब्याह में अमीर-ग़रीब का विचार न होना चाहिए, पर उनके हुक्म को कौन मानता है! नाम के मुसलमान, नाम के हिन्दू रह गये हैं। न कहीं सच्चा मुसलमान नज़र आता है, न सच्चा हिन्दू। मेरे घर का तो तुम पानी भी न पियोगे बेटा, तुम्हारी क्या खातिर करूँ! (शकीना से) बेटी, तुमने जो रुमाल काढ़ा है वह लाकर भैया को दिखाओ। शायद इन्हें पसन्द आ जाए। और हमें अल्लाह ने किस लायक़ बनाया है।’

सकीना रसोई से निकली और एक ताक पर से सिगरेट का एक बड़ा-सा बक्स उठा लाई और उसमें से वह रूमाल निकालकर सिर झुकाए, झिझकती हुई, बुढ़िया के पास आ, रूमाल रख, तेज़ी से चली गयी।

अमरकान्त आँखें झुकाए हुए था; पर सकीना को सामने देखकर आँखें नीचे न रह सकीं। एक रमणी सामने खड़ी हो, तो उसकी ओर से मुँह फेर लेना कितनी भद्दी बात है। सकीना का रंग साँवला था और रूप-रेखा देखते हुए वह सुन्दरी न कही जा सकती थी; अंग-प्रत्यंग का गठन भी कवि-वर्णित उपमाओं से मेल न खाता था; पर रंग-रूप, चाल-ढाल, शील-संकोच–इन सबने मिल-जुलकर उसे आकर्षक शोभा प्रदान कर दी थी। वह बड़ी-बड़ी पलकों से आँखें छिपाए, देह चुराए, शोभा की सुगन्ध और ज्योति फैलाती हुई इस तरह निकल गयी, जैसे स्वप्न-चित्र एक झलक दिखाकर मिट गया हो।

अमरकान्त ने रूमाल उठा लिया और दीपक के प्रकाश में देखने लगा। कितनी सफ़ाई से बेल-बूटे बनाये गये थे। बीच में एक मोर का चित्र था। इस झोंपड़े में इतनी सुरुचि?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book