उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘और सुखदा को?’
‘अपने शौहर का।’
‘और सकीना को? और मुन्नी को? और इन सैकड़ों आदमियों को, जो तरह-तरह की सख़्तियाँ झेल रहे हैं।’
‘अच्छा मान लिया कि कुछ लोगों के दिल की गहराइयों के अन्दर यह तार है; मगर ऐसे आदमी कितने हैं?’
‘मैं कहता हूँ ऐसा कोई आदमी नहीं जिसके अन्दर हमदर्दी का तार न हो। हाँ, किसी पर जल्द असर होता है, किसी पर देर में और कुछ ऐसे ग़रज़ के बन्दे भी हैं, जिन पर शायद कभी न हो।’
सलीम ने हारकर कहा–‘तो आख़िर तुम चाहते क्या हो? लगान हम दे नहीं सकते। वह लोग कहते हैं, हम लेकर छोड़ेंगे। तो क्या करें? अपना सब कुछ क़ुर्क़ हो जाने दें? अगर हम कुछ कहते हैं, तो हमारे ऊपर गोलियाँ चलती हैं। नहीं बोलते, तो तबाह हो जाते हैं। फिर दूसरा कौन-सा रास्ता है? हम जितना ही दबते जाते हैं, उतना वह लोग शेर होते हैं। मरने वाला बेशक दिलों में रहम पैदा कर सकता है; लेकिन मारने वाला खौफ़ पैदा कर सकता है, जो रहम से कहीं ज़्यादा असर डालने वाली चीज़ है।’
अमर ने इस प्रश्न पर महीनों विचार किया था। वह मानता था, संसार में पशुबल का प्रभुत्व है, किन्तु पशुबल को भी न्यायबल की शरण लेनी पड़ती है। आज बलवान से बलवान राष्ट्र में भी यह साहस नहीं है कि वह किसी निर्बल राष्ट्र पर खुल्लमखुल्ला यह कहकर हमला करे कि, ‘हम तुम्हारे ऊपर राज करना चाहते हैं; इसलिए तुम हमारे आधीन हो जाओ।’ उसे अपने पक्ष को न्यायसंगत दिखाने के लिए कोई-न-कोई बहाना तलाश करना पड़ता था। बोला–‘अगर तुम्हारा ख़याल है कि ख़ून और क़त्ल से किसी क़ौम की नज़ात हो सकती है, तो तुम सख्त ग़लती पर हो। मैं इस नज़ात नहीं कहता कि एक ज़माअत के हाथों से ताक़त निकलकर दूसरी ज़माअत के हाथों में आ जाय और वह भी तलवार के ज़ोर से राज़ करे। मैं नज़ात उसे कहता हूँ कि इन्सान में इन्सानियत आ जाए और इन्सानियत की ज़ब्र, बेइन्साफ़ी और खुदगर्ज़ी से दुश्मनी है।’
सलीम को यह कथन तत्त्वहीन मालूम हुआ। मुँह बनाकर बोला–‘हुजूर को मालूम रहे कि दुनिया में फ़रिश्ते नहीं बसते, आदमी बसते हैं।’
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