उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर उसके जवाब की प्रतीक्षा कर रहा था। जब सलीम ने कोई जवाब न दिया, तो उसने पूछा–‘तो आजकल वहाँ कौन है? स्वामी जी हैं?’
सलीम ने सकुचाते हुए कहा–‘स्वामीजी तो शायद पकड़ गये। मेरे बाद ही वहाँ सकीना पहुँच गयी।’
‘अच्छा! सकीना भी परदे से निकल आयी? मुझे तो उससे ऐसी उम्मीद न थी।’
‘तो क्या तुमने समझा था कि आग लगाकर तुम उसे एक दायरे के अन्दर रोक लोगे?’
अमर ने चिन्तित होकर कहा–‘मैंने तो यही समझा था कि हमने हिंसा-भाव को लगाम दे दी है और वह क़ाबू से बाहर नहीं हो सकता।’
‘आप आज़ादी चाहते हैं; मगर उसकी क़ीमत नहीं देना चाहते।’
‘आपने जिस चीज़ को आज़ादी की कीमत समझ रखा है, वह उसकी क़ीमत नहीं है। उसकी क़ीमत है–हक और सच्चाई पर जमे रहने की ताक़त।’
सलीम उत्तेजित हो गया–‘यह फ़जूल की बात है। जिस चीज़ की बुनियाद ज़ब्र पर है, उस पर हक़ और इन्साफ़ का कोई असर नहीं पड़ सकता।’
अमर ने पूछा–‘क्या तुम इसे तसलीम नहीं कहते कि दुनिया का इन्तज़ाम हक़ और इन्साफ़ पर क़ायम है और हरेक इन्सान के दिल की गहराइयों के अन्दर वह तार मौजूद है, जो क़ुरबानियों से झंकार उठता है।’
सलीमन ने कहा–‘नहीं, मैं इसे तसलीम नहीं करता। दुनिया का इन्तज़ाम ख़ुदगरजी और ज़ोर पर क़ायम है और ऐसे बहुत कम इन्सान हैं जिनके दिल की गहराइयों के अन्दर वह तार मौजूद हों।’
अमर ने मुस्कारकर कहा–‘तुम तो सरकार के ख़ैरख़्वाह नौकर थे। तुम जेल में कैसे आ गये?’
सलीम हँसा–‘तुम्हारे इश्क़ में।’
‘दादा को किसका इश्क़ था?’
‘अपने बेटे का।’
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