उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
संध्या का समय था। अमरकान्त परेड में खड़ा था कि उसने सलीम को आते देखा। सलीम के चरित्र की कायापलट हुई थी, उसकी ख़बर मिल चुकी थी; पर यहाँ तक नौबत पहुँच चुकी है, इसका उसे गुमान भी न था। वह दौड़कर सलीम के गले लिपट गया। और बोला–‘तुम ख़ूब आये दोस्त, अब मुझे यक़ीन आ गया कि ईश्वर हमारे साथ है। सुखदा भी तो यहीं है, जनाने जेल में। मुन्नी भी आ पहुँची। तुम्हारी कसर थी, वह पूरी हो गयी। मैं दिल में समझ रहा था, तुम भी एक-न-एक दिन आओगे, पर इतनी जल्दी आओगे, यह उम्मीद न थी। वहाँ की ताजा ख़बरें सुनाओ। कोई हंगामा तो नहीं हुआ?’
सलीम ने व्यंग्य से कहा–‘जी नहीं, ज़रा भी नहीं। हंगामे की कोई बात भी हो। लोग मज़े से खा रहे हैं और फ़ाग गा रहे हैं। आप यहाँ आराम से बैठे हुए हैं न?’
उसने थोड़े-से थोड़े शब्दों में वहाँ की सारी परिस्थिति कह सुनाई–मवेशियों का क़ुर्क़ किया जाना, क़साइयों का आना, अहीरों के मुहाल में गोलियों का चलना। घोष को पटककर मारने की कथा उसे विशेष रुचि से कही।
अमरकान्त का मुँह लटक गया–‘तुमने सरासर नादानी की।’
‘और आप क्या समझते थे, कोई पंचायत है, जहाँ शराब और हुक्के़ के साथ सारा फ़ैसला हो जायेगा?’
‘मगर फ़रियाद तो इस तरह नहीं की जाती।’
‘ हमने तो कोई रिआयत नहीं चाही थी।’
‘रिआयत तो थी ही। जब तुमने एक शर्त पर जमीन ली, तो इन्साफ़ यह कहता है कि वह शर्त पूरी करो। पैदावार की शर्त पर किसानों ने ज़मीन नहीं जोती थी; बल्कि सालाना लगान की शर्त पर। ज़मींदार या सरकार को पैदावार की कमी-बेशी से कोई सरोकार नहीं है।’
‘जब पैदावार के महँगे हो जाने पर लगान बढ़ा दिया जाता है, तो कोई वजह नहीं कि पैदावार के सस्ते हो जाने पर घटा न दिया जाये। मन्दी में तेज़ी का लगान वसूल करना सरासर बेइन्साफ़ी है।’
‘मगर लगान लाठी के ज़ोर से तो नहीं बढ़ाया जाता। उसके लिए भी तो क़ानून है?’
सलीम को विस्मय हो रहा था, ऐसी भयानक परिस्थिति सुनकर भी अमर इतना शान्त कैसे बैठा हुआ है? इसी दशा में उसने यह ख़बर सुनी होती, तो शायद उसका ख़ून खौल उठता और वह आपे से बाहर हो जाता। अवश्य ही अमर जेल में आकर दब गया है। ऐसी दशा में उसने उन तैयारियों को उससे छिपाना ही उचित समझा, जो आजकल दमन का मुक़ाबिला करने के लिए की जा रही थीं।
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