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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…

काले खाँ के आत्मसमर्पण ने अमरकान्त के जीवन को जैसे कोई आधार प्रदान कर दिया। अब तक उसके जीवन का कोई लक्ष्य न था, कोई आदर्श न था, कोई व्रत न था। इस मृत्यु ने उसकी आत्मा में प्रकाश-सा डाल दिया। काले खाँ की याद उसे एक क्षण के लिए भी न भूलती और किसी गुप्त शक्ति की भाँति उसे शान्ति और बल देती थी। वह उसकी वसीयत इस तरह पूरी करना चाहता था कि काले खाँ की आत्मा को स्वर्ग में शान्ति मिले। घड़ी रात से उठकर क़ैदियों का हालचाल पूछना और उनके घरों पर पत्र लिखकर रोगियों के लिए दवा-दारू का प्रबन्ध करना, उनकी शिकायतें सुनना और अधिकारियों से मिलकर शिकायतों को दूर करना, यह सब उसके काम थे। और इन कामों को वह इतने विनय, इतनी नम्रता और सहृदयता से करता कि अमलों को भी उस पर सन्देह की जगह विश्वास होता था। वह क़ौदियों का भी विश्वासपात्र था और अधिकारियों का भी।

अब तक वह एक प्रकार से उपयोगितावाद का उपासक था। इसी सिद्धान्त को मन में, यद्यपि अज्ञात रूप से, रखकर वह अपने कर्त् व्य का निश्चय करता था। तत्त्व-चिन्तन का उसके जीवन में कोई स्थान न था। प्रत्यक्ष के नीचे जो अथाह गहराई है, वह उसके लिए कोई महत्त्व न रखती थी। उसने समझ रखा था, वहाँ शून्य के सिवा और कुछ नहीं। काले खाँ की मृत्यु ने जैसे उसका हाथ पकड़कर बलपूर्वक उसे उस गहराई में डुबा दिया और उसमें डूबकर उसे अपना सारा जीवन किसी तृण के समान ऊपर तैरता हुआ दीख पड़ा, कभी भँवर में पड़कर चक्कर खाता हुआ। उसमें स्थिरता न थी, संयम न था, इच्छा न थी। उसकी सेवा में भी दम्भ था, प्रसाद था, द्वेष था। उसने दम्भ में सुखदा की उपेक्षा की। उस विलासिनी के जीवन में जो सत्य था, उस तक पहुँचने का उद्योग न करके वह उसे त्याग बैठा। उद्योग करता भी क्या? तब उसे इस उद्योग का ज्ञान भी न था। प्रत्यक्ष ने उसकी भीतर वाली आँखों पर परदा डालकर रखा था। प्रमाद में उसने सकीना से प्रेम का स्वाँग किया। क्या उस उन्माद में लेशमात्र भी प्रेम की भावना थी? उस समय मालूम होता था, वह प्रेम में रत हो गया है, अपना सर्वस्व उस पर अर्पण किए देता है; पर आज उस प्रेम में लिप्सा के सिवा और उसे कुछ न दिखाई देता था। लिप्सा ही न थी, नीचता भी थी। उसने उस सरला रमणी की हीनभावना में अपनी लिप्सा शान्त करनी चाही थी। फिर मुन्नी उसके जीवन में आयी; निराशाओं से भग्न, कामनाओं से भरी हुई। उस देवी से उसने कितना कपट व्यवहार किया। यह सत्य है कि उसके व्यवहार में कामुकता न थी। वह इसी विचार से अपने मन को समझा लिया करता था, लेकिन अब आत्मनिरीक्षण करने पर स्पष्ट ज्ञात हो रहा था कि उस विनोद में भी, अनुराग में भी कामुकता का समावेश था। तो क्या वह वास्तव में कामुक है? इसका जो उत्तर उसने स्वयं अपने अंतःकरण से पाया, वह किसी तरह श्रेयस्कर न था। उसने सुखदा पर विलासिता का दोष लगाया; पर वह स्वयं उससे कहीं कुत्सित, कहीं विषय-पूर्ण विलासिता में लिप्त था। उसके मन में प्रबल इच्छा हुई कि दोनों रमणियों के चरणों पर सिर रखकर रोये और कहे– ‘देवियों, मैंने तुम्हारे साथ छल किया है, तुम्हें दग़ा दी है, मैं नीच हूँ, अधम हूँ, मुझे जो सज़ा चाहे दो, यह मस्तक तुम्हारे चरणों पर है।’

पिता के प्रति भी अमरकान्त के मन में श्रद्धा का भाव उदय हुआ। जिसे उसने माया का दास और लोभ का कीड़ा समझ लिया था, जिसे यह किसी प्रकार के त्याग के अयोग्य समझता था, वह आज देवत्व के ऊँचे सिंहासन पर बैठा हुआ था। प्रत्यक्ष के नशे में उसने किसी न्यायी, दयालु ईश्वर की सत्ता को कभी स्वीकार न किया था; पर इन चमत्कारों को देखकर अब उसमें विश्वास और निष्ठा का जैसे एक सागर-सा उमड़ पड़ा था। उसे अपने छोटे-छोटे व्यवहारों में भी ईश्वरीय इच्छा का आभास होता था। जीवन में अब एक नया उत्साह था। नयी जाग्रति थी। हर्षमय आशा से उसका रोम-रोम स्पन्दित होने लगा। भविष्य अब उसके लिए अन्धकारमय न था। दैवी इच्छा में अन्धकार कहाँ!

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