उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘तुम इसके घर में क्यों गये थे?’
‘गये थे मवेशियों को खोलने। यह गँड़ासा लेकर टूट पड़ी।’
युवती ने टोका–‘झूठ बोलते हो। तुमने मेरी बाँह नहीं पकड़ी थी?
सलीम ने लाल आँखों से सिपाही को देखा और धक्का देकर कहा–‘इसके बाल छोड़ दो!’
‘हम इसे साहब के पास ले जायेंगे।’
‘तुम इसे नहीं ले जा सकते।’
सिपाहियों ने सलीम को हाकिम के रूप में देखा था। उसकी मातहती कर चुके थे। उस रोब के कुछ अंश उसके दिल में अभी बाकी थे। उसके साथ ज़बरदस्ती करने का साहस न हुआ। जाकर मि. घोष से फरियाद की। घोष बाबू सलीम से जलते थे। उनका ख़याल था कि सलीम ही इस आन्दोलन को चला रहा है और यदि उसे हटा दिया जाय, तो चाहे आन्दोलन तुरंत शांत न हो जाय, पर उसकी जड़ टूट जायेगी, इसलिए सिपाहियों की रिपोर्ट सुनते ही तुरन्त घोड़ा बढ़ाकर सलीम के पास आ पहुँचे और अंग्रेजी क़ानून बघारने लगे। सलीम को भी अंग्रेजी बोलने का बहुत अभ्यास था। दोनों में पहले क़ानूनी मुबहासा हुआ, फिर धार्मिक तत्त्व-निरूपण का नम्बर आया, इससे उतरकर दोनों दार्शनिक तर्क-वितर्क करने लगे, यहाँ तक कि अन्त में व्यक्तिगत आक्षेपों की बौछार होने लगी। इसके एक क्षण बाद शब्द ने क्रिया का रूप धारण किया। मिस्टर घोष ने हण्टर चलाया, जिसने सलीम के चेहरे पर एक नीली चौड़ी उभरी हुई रेखा छोड़ दी। आँखें बाल-बाल बच गयीं। सलीम भी जामे से बाहर हो गया। घोष की टाँग पकड़कर ज़ोर से खींचा। साहब घोड़े से नीचे गिर पड़े। सलीम उनकी छाती पर चढ़ बैठा और नाक पर घूँसा मारा। घोष बाबू मूर्च्छित हो गये। सिपाहियों ने दूसरा घूँसा न पड़ने दिया। चार आदमियों ने दौड़कर सलीम को जकड़ लिया। चार आदमियों ने घोष को उठाया और होश में लाये।
अँधेरा हो गया था। आतंक ने सारे गाँव को पिशाच की भाँति छाप लिया था। लोग शोक से मौन और आतंक के भाव से दबे, मरने वालों की लाशें उठा रहे थे। किसी के मुँह से रोने की आवाज न निकलती थी। ज़ख्म ताज़ा था, इसलिए टीस न थी। रोना पराजय का लक्षण है। इन प्राणियों को विजय का गर्व था। रोकर अपनी दीनता प्रकट न करना चाहते थे। बच्चे भी जैसे रोना भूल गये थे।
मिस्टर घोष घोड़े पर सवार होकर डाक बँगले गये। सलीम एक सब–इंस्पेक्टर और कई कांस्टेबलों के साथ एक लारी का सदर भेज दिया गया। यह अहीरिन युवती भी उसी लारी पर भेजी गयी। पहर रात जाते-जाते चारों अर्थियां गंगा की ओर चलीं। सलोनी लाठी टेकती हुई आगे-आगे गाती जाती थी–
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