उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मेरा रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं।’
आत्मानन्द यों भी उद्दण्ड आदमी थे। इस हत्याकाण्ड ने उन्हें बिलकुल उन्मत्त कर दिया था। बोले– ‘निरपराधों का रक्त बहाकर आततायी चला जा रहा है तुम कहते हो रिवाल्वर इस काम के लिए नहीं है! फिर और किस काम के लिए है? मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ भैया, एक क्षण के लिए दे दो। दिल की लालसा पूरी कर लूँ। कैसे-कैसे वीरों को मारा है इन हत्यारों ने कि देखकर मेरी आँखों में ख़ून उतर आया।’
सलीम बिना कुछ उत्तर दिए वेग से अहिराने की ओर चला गया। रास्ते में सभी द्वार बन्द थे। कुत्ते भी कहीं भागकर जा छिपे थे।
एकाएक एक घर का द्वार झोंके के साथ ख़ुला और एक युवती सिर खोले अस्त-व्यस्त, कपड़े ख़ून से तर, भयातुर हिरनी-सी आकर उसके पैरों से चिपट गयी और सहमी हुई आँखों से द्वार की ओर ताकती हुई बोली–‘मालिक, यह सब सिपाही मुझे मारे डालते हैं।’
सलीम ने तसल्ली दी–‘घबराओ नहीं। घबराओ नहीं। माजरा क्या है?’
युवती ने डरते-डरते बताया कि घर में कई सिपाही घुस गये हैं। इसके आगे वह और कुछ न कह सकी।
‘घर में कोई आदमी नहीं है?’
‘वह तो भैंस चराने गये हैं।’
‘तुम्हारे कहाँ चोट आयी है?’
‘मुझे चोट नहीं आयी। मैंने दो आदमियों को मारा है।’
इसी वक़्त दो कांस्टेबल बंदूकें लिए घर से निकल आये और युवती को सलीम के पास खड़ी देखकर दौड़कर उसके केश पकड़ लिए और उसे द्वार की ओर खींचने लगे।
सलीम ने रास्ता रोककर कहा–‘छोड़ दो उसके बाल, वरना अच्छा न होगा। मैं तुम दोनों को भूनकर रख दूँगा।
एक कांस्टेबल ने क्रोध-भरे स्वर में कहा–‘छोड़ कैसे दें? इसे ले जायेंगे साहब के पास। इसने हमारे दो आदमियों को गँड़ासे से जख्मी कर दिया है। दोनों तड़प रहे हैं।’
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