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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘अगर मुसलमान होने का यह मतलब है कि ग़रीबों का ख़ून किया जाय, तो मैं काफ़िर हूँ।’

तेगमुहम्मद पढ़ा-लिखा आदमी था। वह वाद-विवाद करने पर तैयार हो गया। सलीम ने उसकी हँसी उड़ाने की चेष्टा की। पन्थों को वह संसार का कलंक समझता था, जिसने मनुष्य-जाति को विरोधी दलों में विभक्त करके एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। तेग़मुहम्मद रोज़ा-नमाज़ का पाबन्दी, दीनदार मुसलमान था। मज़हब की तौहीन क्योंकर बरदाश्त करता? उधर तो अहिराने में पुलिस और अहीरों में लाठियाँ चल रही थीं, इधर इन दोनों में हाथापाई की नौबत आ गयी। क़साई पहलवान था। सलीम भी ठोकर चलाने और घूँसेबाज़ी में मँजा हुआ, फुर्तीला, चुस्त। पहलवान साहब उसे अपनी पकड़ में लाकर दबोच बैठना चाहते थे। वह ठोकर पर ठोकर जमा रहा था। ताबड़तोड़ ठोकरें पड़ीं, तो पहलवान साहब गिर पड़े और लगे मातृभाषा में अपने मनोविकारों को प्रकट करने। उसके दोनों साथियों ने पहले दूर ही से तमाशा देखना उचित समझा था; लेकिन वह तेग़मुहम्मद गिर पड़ा, तो दोनों कमर कसकर पिल पड़े। यह दोनों अभी जवान पट्ठे थे तेज़ी और चुस्ती में सलीम के बराबर। सलीम पीछे हटता जाता था और यह दोनों उसे ठेलते जाते थे। उसकी वक़्त सलोनी लाठी टेकती हुई अपनी गाय खोजने आ रही थी। पुलिस उसे उसके द्वार से खोल लायी थी। यहाँ संग्राम छिड़ देखकर उसने अंचल सिर से उतारकर कमर में बाँधा और लाठी सँभालकर पीछे से दोनों कसाइयों को पीटने लगी। उनमें से एक ने पीछे फिरकर बुढ़िया को इतने ज़ोर का धक्का दिया कि वह तीन-चार हाथ पर जा गिरी। इतनी देर में सलीम ने घात पाकर सामने के जवान को ऐसा घूँसा जमा दिया कि उसकी नाक से ख़ून जारी हो गया और वह सिर पकड़कर बैठ गया। अब केवल एक आदमी रह गया। उसने अपने दो योद्धाओं की यह गति देखी, तो पुलिस वालों से फरियाद करने भागा। तेग़मुहम्मद की दोनों घुटनियाँ बेकार हो गयी थीं। उठ न सकता था। मैदान ख़ाली देखकर सलीम ने लपककर मवेशियों की रस्सियाँ खोल दीं और तालियाँ बजा-बजाकर उन्हें भगा दिया। बेचारे जानवर सहमे खड़े थे। आने वाली विपत्ति का उन्हें कुछ आभास हो रहा था। रस्सियां ख़ुली तो सब पूँछ उठा-उठाकर भागे और हार की तरफ़ निकल गये।

उसी वक़्त आत्मानन्द बदहवास दौड़े आये और बोले ‘आप ज़रा अपना रिवाल्वर तो मुझे दे दीजिए।’

सलीम ने हक्का-बक्का होकर पूछा–‘क्या माजरा है, कुछ कहो तो?’

‘पुलिस वालों ने कई आदमियों को मार डाला। अब नहीं रहा जाता, मैं इस घोष को मज़ा चखा देना चाहता हूँ।’

‘आप कुछ भंग तो नहीं खा गये हैं। भला यह रिवाल्वर चलाने का मौक़ा है?’

‘अगर यों न दोगे, तो मैं छीन लूँगा। इस दुष्ट ने गोलियाँ चलाकर चार-पाँच आदमियों की जान ले ली। दस-बारह आदमी बुरी तरह जख़्मी हो गये हैं। कुछ इनको भी तो मज़ा चख़ाना चाहिए। मरना तो है ही।’

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