उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मि. घोष ने उग्र भाव से जवाब दिया–‘यह नीति ऐसे अवसरों के लिए नहीं है। विशेष अवसरों के लिए विशेष नीति होती है। क्रान्ति की नीति, शान्ति की नीति से भिन्न होना स्वाभाविक है।’
अभी सलीम ने कुछ उत्तर न दिया था कि मालूम हुआ कि, अहीरों के महाल में लाठी चल गयी। मि. घोष उधर लपके। सिपाहियों ने भी संगीने चढ़ाईं और उनके पीछे चले। काशी, पयाग, आत्मानन्द सब उसी तरफ़ दौड़े। केवल सलीम यहाँ खड़ा रहा। जब एकान्त हो गया तो उसने क़साइयों के सरगना के पास जाकर सलाम-अलेक किया और बोला–‘क्यों भाई साहब,आपको मालूम है, आप लोग इन मवेशियों को ख़रीदकर यहाँ की ग़रीब रिआया के साथ कितनी बड़ी बे-इन्साफी़ कर रहे हैं?’
सरगना का नाम तेग़मुहम्मद था। नाटे क़द का गठीला आदमी था, पूरा पहलवान ढीला कुरता, चारखाने की तहमद, गले में चाँदी की तावीज़, हाथ में मोटा सोटा। नम्रता से बोला–‘साहब, मैं तो माल ख़रीदने आया हूँ। मुझे इससे क्या मतलब कि माल किसका है और कैसा है। चार पैसे का फ़ायदा जहाँ होता है वहाँ आदमी जाता ही है।’
‘लेकिन यह तो सोचिए कि मवेशियों की क़ुर्क़ी किस सबब से हो रही है। रिआया के साथ आपको हमदर्दी होनी चाहिए।’
तेग़मुहम्मद पर कोई प्रभाव न हुआ–‘सरकार से जिसकी लड़ाई होगी, उसकी होगी। हमारी कोई लड़ाई नहीं है।’
‘तुम मुसलमान होकर ऐसी बातें करते हो, इसका मुझे अफ़सोस है। इसलाम ने हमेशा मज़लूमों की मदद की है। और तुम मज़लूमों की गरदन पर छुरी फेर रहे हो!’
‘जब सरकार हमारी परवरिश कर रही है, तो हम उसके बदख़्वाह नहीं बन सकते।’
‘अगर सरकार तुम्हारी जायदाद छीनकर किसी ग़ैर को दे दे, तो तुम्हें बुरा लगेगा या नहीं?’
‘सरकार से लड़ना हमारे मज़हब के ख़िलाफ़ है।’
‘यह क्यों नहीं कहते कि तुममें ग़ैरत नहीं है।’
‘आप तो मुसलमान हैं। क्या आपका फ़र्ज नहीं है कि बादशाह की मदद करें?
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