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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


फिर मुझे तेरी अदा याद आयी।

अमरकान्त ने फिर तारीफ़ की–लाजवाब चीज़ है। कैसे तुम्हें ऐसे शेर सूझ जाते हैं?

सलीम हँसा–उसी तरह, जैसे तुम्हें हिसाब और मज़मून सूझ जाते हैं। जैसे एसोसिएशन में स्पीचें दे लेते हो। आओ, पान खाते चलें।

दोनों दोस्तों ने पान खाए और स्कूल की तरफ़ चले। अमरकान्त ने कहा–‘पंडितजी बड़ी डाँट बतायेंगे।’

‘फ़ीस ही तो लेंगे।’

‘और जो पूछें, अब तक कहाँ थे?’

‘कह देना, फ़ीस लाना भूल गया था।’

‘मुझसे तो न कहते बनेगा। मैं साफ़-साफ़ कह दूँगा।’

‘तो तुम पिटोगे भी मेरे हाथ से!’

संध्या समय जब छुट्टी हुई और दोनों मित्र घर चले, अमरकान्त ने कहा– ‘तुमने आज मुझ पर जो एहसान किया है...’

सलीम ने उसके मुँह पर हाथ रखकर कहा–बस ख़बरदार, जो मुँह से एक आवाज़ भी निकाली। कभी भूलकर भी इसका जिक्र न करना।

‘आज जलसे में आओगे?’

‘मज़मून क्या है, मुझे तो याद नहीं।’

‘अजी वही पश्चिमी सभ्यता है।’

‘तो मुझे दो-चार पाइंट बता दो, नहीं मैं वहाँ कहूँगा क्या?’

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